2017 परिवर्तन तो होगा, किंतु…?
तब देश परिवर्तन चाहता था। नरेंद्र मोदी ने इसे भांपा और 2014 के चुनावी अभियान के दौरान ‘परिवर्तन’ को मुख्य चुनावी वादे के रूप में चिह्नित कर दिया था। देश ने भरोसा किया, मोदी को समर्थन दिया, मोदी प्रणानमंत्री बने।
अब ढाई साल व्यतीत हो गए। परिवर्तन तो हो रहे हैं किंतु, परिवर्तन की दिशा और परिणाम को लेकर संदेह भी खड़े हो रहे हैं। यह ठीक है कि दशकों पुरानी नींव को उखाड़ नई नींव पर स्वप्रिल परिवर्तन में समय लगेगा। ठीक यह भी है कि ऐसे झंझावात पैदा करने वाले परिवर्तन को समाज आसानी से तत्काल स्वीकार नहीं करता। मनुष्य स्वभाव है यह। ऐसे परिवर्तन धैर्य के आकांक्षी होते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देशवासियों से ऐसे ही धैर्य की आशा कर रहे हैं। किंतु, तात्कालिक पीड़ा इतनी गहरी है कि धैर्य अथवा सब्र का बांध टूटने की कगार पर है। इस परिवर्तन के शिल्पकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नए-नए उपकरण तलाशने होंगे। ऐसे उपकरण, जिनकी चोट देशवासियों की सहनशीलता को चुनौती न दे। यह तभी संभव होगा, जब चिकित्सक प्रधानमंत्री मोदी के सहयोगियों, सलाहकारों की नीयत भी साफ हो, असंदिग्ध हो। आलोच्य प्रसंग में यह अपेक्षा पूरी होती नहीं दिखती।
जिस शल्यक्रिया के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार के कैंसर का इलाज कर सुखद-सकारात्मक परिवर्तन लाना चाहते हैं, उसकी प्रमाणिकता सिद्ध करने की जिम्मेदारी भी प्रधानमंत्री की है। देश फिलहाल असहज है तो इस कारण कि पिछले ढाई वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के प्रयोग, उनके शब्द सत्यता की कसौटी पर पूर्णत: खरे उतरने में विफल रहे हैं। कारण स्वाभाविक हो सकते हैं किंतु, देश को सकारात्मक परिणाम चाहिए। पिछली बातों को छोड़ ताजातरीन नोटबंदी का ज्वलंत मुद्दा अब कसौटी पर है। यह दोहराना ही होगा कि नोटबंदी की विफलता का अर्थ होगा, पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था का चरमरा जाना, विकास का थम जाना, और गरीबों की लाश के ऊपर पूंजीपतियों के अट्टाहास की गूंज! महात्मा गांधी की समानतावादी भारतीय व्यवस्था के विपरीत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का उदय! भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता, भारतीय चरित्र कभी भी इसे स्वीकार नहीं कर पाएगा। कोई ठोक कर देखे, आरंभिक मजबूरी में मौन रहने के बाद विद्रोह का ऐसा जलजला उठेगा, जो सब कुछ-सबको बदल डालेगा। शासक और व्यवस्था अपवाद नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो एक ऐसी क्रांति आएगी, जो विध्वंसक सोच को नेस्तनाबूद कर सकारात्मक सोच के लिए जगह बनाएगी।
विलंब अभी भी नहीं हुआ। प्रधानमंत्री मोदी सहित अन्य सभी संबंधित अहम्-कुंठा का त्याग कर वास्तविकता के धरातल पर चिंतन-मनन करें। राष्ट्र हित में अर्थात व्यापक ग्रहित में नीति बनाएं, कार्यक्रम बनाएं, ईमानदार क्रियान्वयन सुनिश्चित करें। अब तक की गलतियों को भूलकर जनता उन्हें माफ करा देगी। और तभी 2017 का नया वर्ष भारत व भारतवासियों के लिए शुभ एवं मंगलकारी साबित होगा।
50 दिन 100 मौतें
नहीं आया रामराज्य
नोटबंदी के फैसले के पीछे मंशा अच्छी थी, इसमें कोई शक नहीं है। मोदी के सबसे बड़े आलोचकों ने भी इसकी मंशा पर सवाल नहीं उठाए हैं। अगर टैक्स सिस्टम सही से काम करे तो लंबे अवधि में यह फैसला टैक्स आधार बढ़ाने और आर्थिक सुधारों के लिए रास्ता खोल सकता है। अधिक से अधिक लोगों के टैक्स की जद में आने और नई अप्रत्यक्ष टैक्स रिजीम जीएसटी के आने से अर्थव्यवस्था विकास की अगली छलांग के लिए तैयार होगी। टैक्स वसूली के लिए नए स्रोत खुल जाएंगे। अगर अब कैश पर आधारित बड़े आर्थिक लेनदेन को डिजिटल करने में सफलता मिली तो इससे अर्थव्यवस्था को फायदा मिलेगा। नोटबंदी सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन इसे बेहद खराब तरीके से लागू किया गया है। मई 2014 से लेकर नोटबंदी पहला बड़ा मुद्दा नहीं आया है जिसने सभी 125 करोड़ भारतीयों के जीवन को किसी न किसी तरह प्रभावित किया है। आलम यह है कि 50 दिन में 100 लोगों की मौत होने और बड़ी संख्या में लोगों के रोजगारों पर मार पडऩे के बाद नोटबंदी की मंशा की तारीफ करने वाले समर्थक भी मार्च तक खिंचते दिख रहे नकदी संकट को देखकर इसे लागू करने के तरीके पर सवाल उठाने लगे हैं। जल्द ही इसके अन्य आर्थिक प्रभाव भी नजर आने लगेंगे। छोटी अवधि में ही अर्थव्यवस्था के करीब सभी हिस्सों के बुरी तरह प्रभावित होने से देश किस करवट बैठेगा, कहना मुश्किल नहीं है। और इस सबके बावजूद नोटबंदी लागू करने के तरीकों पर ध्यान नहीं देते हुए, इसकी खामियां नहीं दूर करते हुए विपक्ष को देशद्रोही तक करार देने की कवायदें चालू हों तो सही मंशा भी सवालों के दायरे में आएगी ही क्योंकि नोटबंदी के चलते इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मौत होने के बाद भी निकट भविष्य में रामराज आने की कोई संभावना ही नहीं नजर आ रही है।
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