ऑब्जर्वर ब्यूरो
सरकारी और निजी एजेंसियां दोनों ही फिस्कल ईयर 2016-17 के लिए जीडीपी ग्रोथ के अनुमानों में कटौती कर रही हैं। रिजर्व बैंक ने 7.1 फीसदी ग्रोथ रहने का अनुमान लगाया है। जबकि, एक प्राइवेट ब्रोकरेज हाउस एंबिट कैपिटल ने ग्रोथ के लिए 3.5 फीसदी का बेहद निराशाजनक अनुमान दिया है। कंपनियों के एडवांस टैक्स पेमेंट्स, पीएमआई आंकड़े, ऑटो सेल्स और सर्विस आधारित सेक्टर्स में सुस्ती के आंकड़े अर्थव्यवस्था को पहुंची गहरी चोट की ओर इशारा कर रहे हैं।
शक तो तभी हुआ था, जब प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने कहा था कि आज जमाना ‘हाइप’ का है। फिर क्या आश्चर्य कि पिछले ढाई वर्ष से निरंतर विविध मुद्दों पर हाइप निर्मित किए जाते रहे हैं। कोई भी इस पर एकमत होगा कि ऐसे ‘हाइप’ के परिणाम कभी भी रचनात्मक नहीं होते। देश अगर आज अनेक विषम परिस्थितियों से दो-चार हो रहा है तो ऐसे ही ‘हाइप’ से निकले अवयवों के कारण। ताजातरीन नोटबंदी का निर्णय, क्रियान्वयन और इसके कारण पूरे देश में उत्पन्न अफरातफरी का माहौल निश्चय ही किसी विकास को रेखांकित नहीं करता। प्रधानमंत्री के वादे एक बार फिर गलत साबित हुए। पूरे देश को पीड़ा में डाल पंक्तियों में खड़ा होने को मजबूर करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर भूल गए कि उन्होंने देश को नोटबंदी के परिणामस्वरूप खुशहाली का स्वप्न दिखाया था। हो सकता है, कुछ दशकों बाद ऐसा हो भी जाए, किंतु वर्तमान की असहनीय पीड़ा और लगभग 100 लोगों की अकाल मौत की जिम्मेदारी से प्रधानमंत्री स्वयं को मुक्त नहीं कर सकते…
जन भावनाओं से खिलवाड़ आखिर कब तक चलेगा?
ये देश की जनता का लोकतांत्रिक भारत है या किसी एक व्यक्ति या राजदल का? प्रधानमंत्री पूरे देश के लिए एक आदर्श होता है। युवा पीढ़ी उनका अनुसरण करती है- उनके हर शब्द का, उनकी चाल-ढाल का, उनके चरित्र का। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री के शब्दों को देश जुमला मानने लगे, तब निश्चय ही प्रधानमंत्री पद लांक्षित होता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देशवासियों ने पूरे देश के चाल, चरित्र और चेहरे में सकारात्मक परिवर्तन की अपेक्षा की थी। मोदी ने ऐसे वादे भी किए थे। लेकिन, यह कड़वा सच अब सतह पर आ चुका है कि वादे अगर झूठे साबित हो रहे हैं तो किसी आकलन के कारण नहीं, बल्कि पूरे देश को भ्रम में रखने की एक सोची-समझी रणनीति के तहत, ताकि एक अराजकता का वातावरण निर्मित हो। ऐसी अराजकता जिसमें पुरानी सभी मान्यताएं, परंपराएं धूल धूसरित हो जाएं। नई विचारधारा, नई संस्कृति की नींव पर एक नए भारत का निर्माण किया जाए, लेकिन इस सोच के प्रवर्तक भूल गए कि विविध धर्म, संस्कृति, जाति-वर्ग युक्त भारतीय समाज कभी भी एकांगी सोच का वरण नहीं कर सकता। भारत तो विविधता में एकता का कायल रहा है- अनेकता का नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस मुकाम पर चूक गए। सवाल यह है कि आखिर जनता की भावनाओं से हर बार इस तरह का खिलवाड़ कब तक चलेगा और कब तक जनता उनके बेसिर-पैर के प्रयोगों की बलि चढ़ती रहेगी? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिन अच्छे दिनों की नैय्या पर सवार होकर नरेंद्र मोदी लोकसभा पहुंचे थे, उनकी आस में जनता को कब तक बुरे दिनों को झेलना पड़ेगा?
हर सेक्टर में नौकरियों पर आफत
कंपनियों के मुनाफे को तगड़ा झटका लगा है। असंगठित सेक्टर में लाखों नौकरियां खत्म होने की खबरें आ रही हैं। किसानों को औने-पौने भाव में अपने उत्पाद बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। सर्विस और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टरों पर चोट पहुंची है। पूरी दुनिया इस बात को लेकर अचंभित है कि आखिर मोदी के करेंसी बैन करने के पीछे क्या तर्क था? ज्यादातर अर्थशास्त्री तीसरी तिमाही को बेकार मानकर चल रहे हैं। लेकिन, असली खतरा इस बात का है कि कहीं कैश की कमी के चलते बुरे हालात चौथी तिमाही को भी अपनी गिरफ्त में न ले लें। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक, 27 नवंबर के हफ्ते में बेरोजगारी की दर गिरकर 5 फीसदी से नीचे आ गई थी। लेकिन, इसके बाद से इसमें इजाफा हो रहा है। 4 दिसंबर के हफ्ते में यह बढक़र 6.1 फीसदी हो गई। 11 दिसंबर के हफ्ते में बेरोजगारी दर बढक़र 6.6 फीसदी और 18 दिसंबर के हफ्ते में 7 फीसदी पर पहुंच गई। चूंकि, असर धीरे-धीरे दिखाई देता है, ऐसे में नए आंकड़ों में इसके काबू से बाहर होने की भी आशंका है।
अर्थव्यवस्था भी होगी धराशायी?
नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था की कई परतों पर चोट पहुंची है। नोटबंदी से एक उम्मीद यह थी कि इससे 4-5 लाख करोड़ रुपए का एकमुश्त फायदा इकॉनमी को होगा। यह माना जा रहा था कि तकरीबन इतनी रकम सिस्टम में वापस नहीं लौट पाएगी। सरकार को लग रहा था कि 8 नवंबर को 15.44 लाख करोड़ रुपए के 500 और 1,000 रुपए के नोट बंद करने के बाद इसमें से 10 लाख करोड़ रुपए ही सिस्टम में वापस लौटेंगे। लेकिन, यह उम्मीद बेमानी साबित हुई। दूसरी ओर, रिजर्व बैंक ने यह स्पष्टीकरण दिया कि घटी हुई करेंसी लाइबिलिटी के चलते सरप्लस पूंजी को केंद्र सरकार को ट्रांसफर किए जाने की कोई संभावना नहीं है। इससे सरकार को कोई तत्काल फायदा मिलने की आस भी खत्म हो गई। इसके उलट नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को चोटिल कर दिया।
पूंजी की भारी कमी से जूझ रहे बैंक
सरकारी बैंकों के पास पूंजी की भारी कमी है। इन बैंकों के डूबे हुए कर्ज (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) सितंबर 2016 को बढक़र करीब 6 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गए हैं। यह टोटल बैंक क्रेडिट का करीब 8 फीसदी बैठता है। अगर बैड लोन और रीस्ट्रक्चर्ड लोन्स को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा बैंकों के कुल क्रेडिट के 12-13 फीसदी तक पहुंच जाता है। बैंकों को अब 1.8 लाख करोड़ रुपए की पूंजी चाहिए। सरकार ने 2018-19 तक 4 साल में इन बैंकों में 70,000 करोड़ रुपए की पूंजी डालने का वादा किया है। साथ ही सरकार चाहती है कि बैंक बकाया 1.1 लाख करोड़ रुपए की रकम मार्केट से जुटाएं। यह पर्याप्त नहीं है। साथ ही बैंकों को अपने लिए मार्केट से रकम जुटाना भी मुश्किल होगा। इससे मुश्किल और बढ़ रही है। अब तक रिफॉर्म के मोर्चे पर कोई बढ़त नहीं दिख रही है। इसी वजह से इन बैंकों में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाली सरकार को इनमें ज्यादा पूंजी डालने के बारे में सोचना होगा। बैंकिंग सेक्टर में बड़े रिफॉर्म भी आगे बढ़ाने होंगे।
पूंजी की भारी कमी से जूझ रहे बैंक
सरकारी बैंकों के पास पूंजी की भारी कमी है। इन बैंकों के डूबे हुए कर्ज (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) सितंबर 2016 को बढक़र करीब 6 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गए हैं। यह टोटल बैंक क्रेडिट का करीब 8 फीसदी बैठता है। अगर बैड लोन और रीस्ट्रक्चर्ड लोन्स को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा बैंकों के कुल क्रेडिट के 12-13 फीसदी तक पहुंच जाता है। बैंकों को अब 1.8 लाख करोड़ रुपए की पूंजी चाहिए। सरकार ने 2018-19 तक 4 साल में इन बैंकों में 70,000 करोड़ रुपए की पूंजी डालने का वादा किया है। साथ ही सरकार चाहती है कि बैंक बकाया 1.1 लाख करोड़ रुपए की रकम मार्केट से जुटाएं। यह पर्याप्त नहीं है। साथ ही बैंकों को अपने लिए मार्केट से रकम जुटाना भी मुश्किल होगा। इससे मुश्किल और बढ़ रही है। अब तक रिफॉर्म के मोर्चे पर कोई बढ़त नहीं दिख रही है। इसी वजह से इन बैंकों में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाली सरकार को इनमें ज्यादा पूंजी डालने के बारे में सोचना होगा। बैंकिंग सेक्टर में बड़े रिफॉर्म भी आगे बढ़ाने होंगे।
गरीब परपीडऩ सुख में खुश
कालेधन के खिलाफ यह जंग दरअसल एक आभासी जंग है। सतह से लग रहा है कि यह लड़ाई कालेधन के विरुध्द है, पर यह भी दिख रहा है कि बैंक कर्मियों ने प्रभुवर्गों की मिलीभगत से कैसी लीलाएं रचीं और इस पूरे अभियान पर पानी फेर दिया। यह आभासी सुख, आम जनता को भी मिल रहा है। उन्हें लग रहा है कि मोदी के इस कदम से अमीर-गरीब की खाई कम होगी, अमीर लोग परेशान होंगे, पर इस आभासी दुख के कहीं कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। चूंकि, परपीडऩ से होने वाला सुख आनंदित करता है, नोटबंदी भी कुछ लोगों को ऐसा ही सुख दे रही है। इस तरह के भावनात्मक प्रयास निश्चित ही भावुक जनता की अपने नेता के प्रति आशक्ति बढ़ाते हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश का मैदान इस भावुक सच की असली परीक्षा करेगा।
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