प्रधानमंत्रीजी! आश्वासनों की
थाली में शब्दों के व्यंजन कब तक?
‘‘भ्रष्टाचार तब खत्म होगा, जब बड़ी संख्या में लोग महसूस करने लगेंगे कि राष्ट्र का उनके लिए कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है, लेकिन वे राष्ट्र के लिए हैं।’’
प्रासंगिक ही नहीं, एक आह्वान भी हैें महात्मा गांधी के ये शब्द!
आजादी पूर्व के गांधी के इन शब्दों में चेतावनी भी है। और आह्वान है जन-जन का। महात्मा गांधी को यूं ही दूरदृष्टा नहीं कहा जाता था। गांधी की तब की कल्पना आज साकार है। पढऩे, सुनने में बुरा तो लगेगा, किंतु ये सत्य है कि आज बड़ी संख्या में लोग अपने अस्तित्व को ढूंढ रहे हैं। चिंतन को मजबूर हैं कि क्या राष्ट्र को, वर्तमान के परिवर्तित राष्ट्र को उनकी जरूरत है भी? ठगा-छला महसूस करने लगे हैं लोग। स्थापित मान्यता परंपरा के विपरीत शीर्ष नेतृत्व में जब देश अनुकरणीय, अनुसरणीय ढूंढऩे निकलता है, तब भटक जाता है। विचलित हो उठता है, भारतीय मन- किसका अनुसरण करे, कैसे अनुसरण करे? क्या ये अनुकरणीय है भी? दुविधा की स्थिति में ‘मन’ चीत्कार कर उठता है, ‘कहां है गांधी’ ढूंढों उन्हें। राष्ट्र को जरूरत है अपने राष्ट्रपिता की। उस राष्ट्रपिता की, जिन्होंने कथनी और करनी के भेद को मिटाने हेतु एक धोती-लंगोटी धारण कर फकीर वेश का वरण कर लिया था। अपने अनुयायियों, प्रशंसकों के साथ कभी छल नहीं किया। दाग लगे तो स्वीकार करते हुए उसे मिटाया। आज का वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक परिवेश, नेतृत्व हैरान, परेशान करने वाला है। फिर क्या आश्चर्य की लोगबाग राष्ट्र के साथ स्वयं को जोडऩे में हिचक महसूस करने लगे हैं।
पुरानी मान्यता और परंपरा इस बात की चुगली करती है कि एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि को सीजर की पत्नी की तरह किसी भी प्रकार के संदेह से ऊपर होना चाहिए। पूरा संसार इसे स्वीकार करता है। फिर आज अनुकरणीय आदर्शों के लिए विश्वविख्यात भारत इस बिंदु पर संदेहों के घेरे में क्यों? क्या सच नहीं कि लोकतांत्रिक भारत का शीर्ष नेतृत्व अर्थात प्रधानमंत्री स्वयं संदिग्ध बन बैठे हैं। कथनी और करनी के साथ बलात्कार के दोषी के रूप में देखे जा रहे हैं? झूठे वादों के लिए अब वे मजाक की वस्तु बन गए हैं? वादों की विफलता को स्वीकार कर संशोधन की जगह कुतर्कों के सहारे स्वयं का बचाव कर हास्यास्पद बने दिखने लगे हैं? मैं चाहूंगा, ये सारी शंकाएं गलत साबित हों, क्योंकि विशाल भारत का प्रधानमंत्री सीजर की पत्नी की तरह बेदाग होना ही चाहिए। लेकिन, तथ्य और परिस्थितियां तो कुछ और ही बयां कर रही हैं। पहले बात उन वादों की जिनसे देश पुलकित हुआ था, परिवर्तन को आतुर देशवासी एक स्वच्छ भारत के निर्माण के प्रति आशान्वित हुए थे…
याद करें! 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत! प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने संसद में अपने पहले संबोधन में भी एक ऐतिहासिक घोषणा की थी। संसद के द्वार पर माथा टेक इसकी पवित्रता चिह्नित करने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने प्रण लिया था संसद और सांसदों को भी ‘दाग मुक्त’ करने का।
उत्साहित, दृढ़प्रतिज्ञ प्रधानमंत्री ने तब संसद में घोषणा की थी कि एक साल के अंदर संसद और सांसद दागमुक्त होंगे। पूरे देश ने तब प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य का हृदय से स्वागत किया था। दशकों से अनेक दागयुक्त सांसद पवित्र संसद को दागदार बनाते रहे थे। संसद की मर्यादा-गरिमा पर चोट करते रहे थे। पूरे देश की राजनीति, समाज, सत्ता और सार्वजनिक जीवन में आमूलचूल परिवर्तन की शपथ लेने वाले प्रधानमंत्री मोदी से लोगों को आशा बंधी कि अब एक स्वच्छ लोकतंत्र, स्वच्छ संसद, स्वच्छ सत्ता और एक स्वच्छ अभिनव समाज का उदय होगा। लेकिन, इसकी पहली शर्त थी- सांसदों का दाग मुक्त होना। प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए दागमुक्त संसद और दागमुक्त सांसद की अपनी इच्छा, अपने संकल्प को प्रकट किया था।
लेकिन, एक वर्ष नहीं, अब लगभग ढाई वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। संसद और सांसद दागमुक्त नहीं हुए। वहीं, दागदार सांसदों की फौज! और क्षमा करेंगे, इन सांसदों के कारण वही दागदार संसद! प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा गलत साबित हुई।
क्या इसके लिए प्रधानमंत्री ने कोई विशेष पहल की थी? क्या पहल के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं मिले? नहीं! किसी विशेष पहल की कोई झलक कभी नहीं मिली। बल्कि, इसके विपरीत देश ने देखा कि कुछ दागदार सांसदों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया। साफ है कि दागमुक्त संसद की बात मात्र अतिउत्साही कल्पना भर बनकर रह गई। प्रधानमंत्री अपने वादे पूरे नहीं कर पाने के दोषी बन गए।
ढाई साल पुरानी इस बात का उल्लेख इसलिए कि देश अब नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में नई सरकार के आधे कार्यकाल पूरा करने के बाद देशवासी समीक्षा पर उतर आए हैं। अब देशवासियों को याद आ रही है, चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात नरेन्द्र मोदी द्वारा किए गए अन्य वादों की तरह वैसे वादों की, जो पूरे नहीं किए जा सके। ऐसे वादों की, जिनकी पूर्ति नहीं होने की दशा में अपना जीवन त्याग कर देने की बात उन्होंने की थी।
याद करें, चुनाव पूर्व पहला वादा!
नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि ‘आप मुझे 100 दिनों की सरकार दो, मैं विदेश में जमा सारा लाखों-करोड़ों का काला धन वापस ले आऊंगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मुझे फांसी पर चढ़ा देना।’ न तो विदेशों से कोई काला धन वापस आया है और न ही प्रधानमंत्री को फांसी पर लटकाने की पहल की गई। वादा झूठा साबित हुआ।
और ये भी याद करें!
दूसरा महत्वपूर्ण वादा! प्रधानमंत्री बनने के बाद अनेक वादों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण वादा! 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा से पूरे देश में मची अफरा-तफरी के बाद उन्होंने फिर देश से कहा था कि ‘आप मुझे 50 दिनों का समय दो। अगर इस बीच स्थिति सामान्य नहीं हुई तो आप मुझे चौराहे पर जला देना।’ 50 दिनों की अवधि समाप्त हो गई। स्थिति सामान्य होने के कोई संकेत नहीं हैं।
तो क्या पुन: वादे की विफलता की स्थिति में लोग-बाग उन्हें चौराहे पर जला देंगे? या फिर प्रधानमंत्री स्वयं को इसके लिए प्रस्तुत करेंगे? सवाल ही पैदा नहीं होता। जनता राजनेताओं के आश्वासनों, वादों और विफलताओं की आदी हो चुकी है। देश की जनता के लिए झूठे आश्वासन, झूठे वादे कोई नई बात नहीं। लेकिन इन मामलों में, चूंकि स्वयं प्रधानमंत्री कसौटी पर हैं, देशवासियों को सदमा पहुंचना स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री बार-बार वादे करते रहे, झूठा साबित होते रहे। ऐसी स्थिति से दो-चार होकर देश की जनता रुदन को विवश है।
सचमुच, यह भारत देश और भारतवासियों की नियति है कि उन्हें बार-बार आश्वासनों की थाली में शब्दों के व्यंजन परोस दिए जाते हैं। क्या ऐसी अवस्था पर कभी पूर्णविराम लगेगा?
लेकिन, मैं नहीं मानता कि सब कुछ खत्म हो गया है। जनता का बड़ा वर्ग स्वयं को राष्ट्र के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निर्णय लिये थे तो सकारात्मक सोच के साथ। क्रियान्वयन के मार्ग में दुर्घटनाएं होती रहीं तो भ्रष्टाचार के कीटाणुओं के कारण। पहचान कर उन्हें मौत देनी होगी। अर्थव्यवस्था के विकास को रफ्तार मिलने के संकेत मिले और लोकतंत्र समानतावादी समाज की स्थापना के मार्ग पर बढ़ता प्रतीत हुआ। पर, दुर्भाग्य कि यह ज्यादा दिन नहीं चल पाया। शुरुआती उम्मीदों और वायदों के कारण निराशा, कटुता और जबरदस्त कुंठा की भावना फैली है। कारण वही राजनीति का अपराधीकरण और ऊंचे पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार। चुनौती है प्रधानमंत्री को राष्ट्र के प्रति अपने समर्पण की और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग की सच्चाई की। देश अगर पुन: उन्हें संदेह का लाभ दे रहा है तो सिर्फ इसलिए कि वह अपने प्रधानमंत्री को अपराधी के रूप में कटघरे में नहीं देखना चाहता।
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