मोदी और भागवत की खींचतान के मायने
गौरक्षकों की कार्यशैली पर मोदी और मोहन भागवत के बयान मेल नहीं खाने से सवाल पैदा हो रहे हैं कि वे अलग-अलग बयानों से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं और इनमें से किसकी बात को जायज मानें। दरअसल, गोरक्षा के नाम पर देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उपद्रव और उसे लेकर केंद्र सरकार की किरकिरी के बाद भागवत के बयान के देश के राजनीतिक व सामाजिक हलकों में निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं। मोदी ने कहा था कि गौरक्षा के नाम पर उपद्रव मचाने वाले अस्सी फीसद लोग आपराधिक प्रवृत्ति के हैं तो संघ प्रमुख बोले कि गौरक्षकों को उपद्रवियों की श्रेणी में रख कर नहीं देखा जा सकता। इससे पहले भी बिहार चुनाव के वक्त भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात की तो मोदी ने खंडन कर दिया। लेकिन, एक बयान ने मोदी को उनके आभामंडल की हकीकत बता दी कि केवल उनके नाम से चुनाव नहीं जीते जा सकते और यह भी कि संघ जहां चाहे, जब चाहे, भाजपा को आईना दिखा सकता है कि उसके बिना पार्टी संभव नहीं।
संघ और भाजपा
दूरियां या नजदीकियां
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की 2004 में हुई हार के बाद संघ पूरे दस बरस तक राजनीतिक बियाबान में रहा। लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनावों में संघ के सबसे योग्य स्वयंसेवक और पूर्व प्रचारक नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व विजय के बाद से सत्ता का हत्था एक बार फिर से स्वयंसेवक संघ की पहुंच और प्रभाव के दायरे में आ गया है। पर अबकी बार संघ ने इस हत्थे को अपने हाथों में लपकने की जल्दबाजी नहीं दिखाई। संघ ने सत्ता लपकने की जल्दबाजी 1998 में दिखाई थी, जब संघ के एक और पुराने स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी ने सहयोगी पार्टियों की मदद से प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इस जल्दबाजी के कारण आरएसएस और वाजपेयी सरकार के बीच लगभग रोजाना कलह होती थी, घर के भीतर ही नहीं बल्कि सडक़ों और खुले मैदानों में भी। एक ओर संघ के वरिष्ठ विचारक और भारतीय मज़दूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी वाजपेयी मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा को खुली सभा में अपराधी घोषित कर रहे थे। तो दूसरी तरफ विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों ने वाजपेयी के लिए चैन से सरकार चलाना मुश्किल कर दिया था। संघ ने स्वदेशी जागरण मंच नाम का एक और संगठन मैदान में उतार दिया था जो भारतीय जनता पार्टी के निर्मम विपक्ष की भूमिका निभा रहा था और वाजपेयी की नीतियों को राष्ट्र-विरोधी करार दे रहा था।
लेकिन, इस विजयदशमी पर सरसंघचालक मोहन भागवत केंद्र सरकार के प्रयासों की तारीफ कर रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोहन भागवत की तो रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एक कदम और आगे बढक़र सर्जिकल स्ट्राइक को संघ की शिक्षा की ही देन बताने लगते हैं। मान सकते हैं कि सत्ता से दूर रहने के बाद पार्टी और सरकार के बारे में संघ की समझ का विकास हुआ है। उसे ये अच्छी तरह अहसास हो चुका है कि जिस पार्टी को सत्ता में लाने में उसके स्वयंसेवक जी जान लगा देते हैं, उसी सरकार की कब्र खोदना ख़ुद के लिए राजनीतिक बियाबान का टिकट कटाने जैसा होगा। इसलिए संघ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने चुनौती पेश करने की बजाए सहकार का रास्ता अपना रहा है, ताकि देश भर में फैले उसके कामों में किसी तरह की कोई अड़चन नहीं आए।
संघ के कुछ उल्लेखनीय कार्य
कश्मीर सीमा पर निगरानी
संघ के स्वयंसेवकों ने अक्टूबर 1947 से ही कश्मीर सीमा पर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर बगैर किसी प्रशिक्षण के लगातार नजर रखी। उसी समय, जब पाकिस्तानी सेना की टुकडिय़ों ने कश्मीर की सीमा लांघने की कोशिश की, तो सैनिकों के साथ कई स्वयंसेवकों ने भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ाई में प्राण दिए थे। विभाजन के दंगे भडक़ने पर, संघ ने शरणार्थियों के लिए 3000 से ज्यादा राहत शिविर लगाए थे।
1962 का युद्ध
इस युद्ध में स्वयंसेवकों ने सरकारी कार्यों और विशेष रूप से जवानों की मदद में पूरी ताकत लगा दी, सैनिक आवाजाही मार्गों की चौकसी, प्रशासन की मदद, रसद और आपूर्ति में मदद। इस पर नेहरु ने 1963 में 26 जनवरी की परेड में संघ को शामिल होने का निमंत्रण दिया। मात्र दो दिन पहले मिले निमंत्रण पर 3500 स्वयंसेवक गणवेश में उपस्थित हो गए। आलोचना होने पर नेहरू ने कहा- ‘यह दर्शाने के लिए कि केवल लाठी के बल पर भी सफलतापूर्वक बम और चीनी सशस्त्र बलों से लड़ा सकता है, विशेष रूप से 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए आरएसएस को आकस्मिक आमंत्रित किया गया।’
कश्मीर का विलय
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह विलय का फैसला नहीं कर पा रहे थे और उधर कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी सेना सीमा में घुसती जा रही थी, तब सरदार पटेल ने गुरु गोलवलकर से मदद मांगी। गुरुजी श्रीनगर पहुंचे, महाराजा से मिले। इसके बाद महाराजा ने कश्मीर के भारत में विलय पत्र का प्रस्ताव दिल्ली भेज दिया।
1965 के युद्ध में कानून-व्यवस्था संभाली
पाकिस्तान से युद्ध के समय लालबहादुर शास्त्री ने कानून-व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद देने और दिल्ली का यातायात नियंत्रण संघ से अपने हाथ में लेने का आग्रह किया, ताकि पुलिसकर्मी सेना की मदद कर सकें। स्वयंसेवकों ने घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान किया, और युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ हटाने का काम किया।
गोवा का विलय
दादरा, नगर हवेली और गोवा के भारत विलय में संघ की निर्णायक भूमिका थी। 21 जुलाई 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह पुर्तगाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया। संघ के स्वयंसेवक 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे। गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से नेहरु के इनकार करने पर जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया। हालत बिगडऩे पर अंतत: भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और 1961 में गोवा आजाद हुआ।
आपातकाल
1975 से 1977 के बीच आपातकाल के खिलाफ संघर्ष और जनता पार्टी के गठन तक में संघ की भूमिका की याद अब भी कई लोगों के लिए ताजा है। सत्याग्रह में हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रह कर आंदोलन चलाना शुरू किया। आपातकाल के खिलाफ पोस्टर सडक़ों पर चिपकाना, जनता को सूचनाएं देना और जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओं-नेताओं के बीच संवाद सूत्र का काम संघ कार्यकर्ताओं ने संभाला। जब लगभग सारे ही नेता जेलों में बंद थे, तब सारे दलों का विलय करा कर जनता पार्टी का गठन करवाने की कोशिशें संघ की ही मदद से चल सकी थीं।
भारतीय मजदूर संघ
1955 में बना भारतीय मजदूर संघ शायद विश्व का पहला ऐसा मजदूर आंदोलन था, जो विध्वंस के बजाए निर्माण की धारणा पर चलता था। कारखानों में विश्वकर्मा जयंती का चलन भारतीय मजदूर संघ ने ही शुरू किया था। आज यह विश्व का सबसे बड़ा, शांतिपूर्ण और रचनात्मक मजदूर संगठन है।
जमींदारी प्रथा का खात्मा
जहां बड़ी संख्या में जमींदार थे, उस राजस्थान में खुद सीपीएम को यह कहना पड़ा था कि भैरों सिंह शेखावत राजस्थान में प्रगतिशील शक्तियों के नेता हैं। संघ के स्वयंसेवक शेखावत बाद में भारत के उपराष्ट्रपति भी बने।
शिक्षा में अग्रसर
भारतीय विद्यार्थी परिषद, शिक्षा भारती, एकल विद्यालय, स्वदेशी जागरण मंच, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की स्थापना। विद्या भारती आज 20 हजार से ज्यादा स्कूल चलाता है, लगभग दो दर्जन शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज, डेढ़ दर्जन कॉलेज, 10 से ज्यादा रोजगार एवं प्रशिक्षण संस्थाएं चलाता है। केन्द्र और राज्य सरकारों से मान्यता प्राप्त इन सरस्वती शिशु मंदिरों में लगभग 30 लाख छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं और 1 लाख से अधिक शिक्षक पढ़ाते हैं। संख्या बल से भी बड़ी बात है कि ये संस्थाएं भारतीय संस्कारों को शिक्षा के साथ जोड़े रखती हैं। अकेला सेवा भारती देश भर के दूरदराज के और दुर्गम इलाकों में सेवा के एक लाख से ज्यादा काम कर रहा है। लगभग 35 हजार एकल विद्यालयों में 10 लाख से ज्यादा छात्र अपना जीवन संवार रहे हैं। उदाहरण के तौर पर सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर से आतंकवाद से अनाथ हुए 57 बच्चों को गोद लिया है जिनमें 38 मुस्लिम और 19 हिंदू बच्चे हैं।
सेवा कार्य
1971 में ओडिशा में आए भयंकर चक्रवात से लेकर भोपाल की गैस त्रासदी तक, 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों से लेकर गुजरात के भूकंप, सुनामी की प्रलय, उत्तराखंड की बाढ़ और कारगिल युद्ध के घायलों की सेवा तक – संघ ने राहत और बचाव का काम हमेशा सबसे आगे होकर किया है। भारत में ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका और सुमात्रा तक में।
कौन हैं वेलिंगकर ?
वेलिंगकर बीते 54 साल से आरएसएस से जुड़े हुए थे। पुर्तगालियों के शासन से गोवा के मुक्त होने के बाद जून 1962 में पणजी में महालक्ष्मी मंदिर में राज्य में आरएसएस की पहली शाखा लगी थी। वेलिंगकर उस शाखा में शामिल हुए थे। उस वक्त उनकी उम्र महज 13 साल की थी।वेलिंगकर उन 50 कार्यकर्ताओं में शामिल रहे हैं, जिन्हें 1975 में इमरजेंसी के दौरान मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था वेलिंगकर ने उस वक्त 10 महीने जेल में बिताए।68 साल के वेलिंगकर मूल रूप से टीचर रहे हैं। इन्होंने अपनी जिंदगी के 34 साल बतौर शिक्षक बिताए। इसमें सात साल हेडमास्टर और 18 साल प्रिंसिपल रहे।वेलिंगकर को 1996 में गोवा विभाग संघचालक की जिम्मेदारी सौंपी गई और वह इस पद पर करीब 20 साल रहे।भारतीय भाषा सुरक्षा मंच (बीबीएसएम) के संयोजक वेलिंगकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को दिया जाने वाला अनुदान रद्द किए जाने की मांग करते रहे हैं। इनका कहना है कि गोवा में शिक्षा का माध्यम के तौर पर क्षेत्रीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार की जरूरत है।वेलिंगकर का दावा है कि मौजूदा रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और राज्य के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर सहित तमाम कार्यकर्ताओं को उन्होंने आगे बढ़ाया है। लेकिन, आज इन दोनों के साथ वेलिंगकर के रिश्ते तल्ख हो गए हैं।वैसे भी नरेंद्र मोदी की स्थिति अटल बिहारी वाजपेयी जैसी नहीं है जो संघ या बीजेपी के भरोसे नहीं बल्कि सहयोगी पार्टियों के भरोसे सत्ता में थे। मोदी के कारण इतनी संख्या में भारतीय जनता पार्टी के सांसद लोकसभा पहुंचे हैं जिसकी संघ ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, इसलिए उनकी स्थिति मजबूत है।
अब बात यदि अकेले मोदी की आती है तो 2002 गुजरात दंगों के बाद से ही ये कहा जाने लगा कि नरेंद्र मोदी ने ख़ुद को एक ‘कल्ट फिगर’ में तब्दील कर दिया है। वो संगठन और पार्टी से बड़े हो गए हैं। संघ और बीजेपी को मोदी की जरूरत है, मोदी को उनकी नहीं। जब 2001 में केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटाकर नरेंद्र मोदी को लाया गया तो उस वक़्त गुजरात बीजेपी में उनका कोई खास वजन नहीं था। दंगों के बाद उन्होंने चौतरफा आलोचना और विपरीत परिस्थितियों के बीच भी अवसर तलाशा और उसे हाथ से जाने नहीं दिया। लेकिन, आरएसएस के राज्य स्तर के नेता मोदी को अब भी अपना जूनियर मानते हुए समझ रहे थे कि वो संघ पर निर्भर रहेंगे। जबकि दंगों के बाद बहुसंख्यक समुदाय में मोदी काफी लोकप्रिय हो चुके थे और उन्हें सीधे वोटर से संवाद करना आ गया था। उन्होंने गुजरात आरएसएस के कुछ नेताओं को ये अहसास दिला दिया कि सरकार मुख्यमंत्री चलाएंगे, संघ नहीं। इससे संजय जोशी जैसे संघ के कुछ प्रभावशाली अधिकारी मोदी-विरोधी ख़ेमे का नेतृत्व करने लगे और खबरें चलने लगीं कि मोदी ने संघ को ठिकाने लगा दिया है।
मोदी और संघ (और विश्व हिंदू परिषद) के बीच तनाव की ख़बरें पूरी तरह निराधार नहीं थीं, लेकिन मोदी संगठन नहीं बल्कि व्यक्तियों को किनारे कर रहे थे। आखिरकार संघ ने व्यक्तियों को नहीं बल्कि भगवा झंडे को गुरु का स्थान दिया है और मोदी का ये गुजरात मॉडल कारगर भी साबित हुआ। एक तरह से मोदी आरएसएस के लिए एक ऐसी मजबूरी बन गए जिनके अलावा संगठन के पास कांग्रेस को धूल चटाने वाला और कोई बेहतर विकल्प नहीं था।
हालांकि, अब ये सवाल कई लोगों के मन में है कि क्या नरेंद्र मोदी संघ को अप्रासंगिक कर देंगे? ऐसा मानना संघ के इतिहास की अनदेखी करना होगा। हालांकि जनसंघ और बीजेपी के इतिहास में नरेंद्र मोदी से ज़्यादा लोकप्रिय नेता (अटल बिहारी वाजपेयी सहित) कोई नहीं हुआ। लेकिन, बलराज मधोक से लेकर जसवंत सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी तक ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्हें आरएसएस ने राजनीति का सिरमौर तो स्वीकार किया, पर जैसे ही ये कद्दावर नेता संगठन पर बोझ बनने लगे, उन्हें तुरंत उतार कर धरती पर खड़ा भी कर दिया।
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को राजनीति से खासी छिटक पड़ती थी। जनसंघ में गए संघ के कुछ स्वयंसेवकों के व्यवहार पर उन्होंने एक बार कहा था, ‘वो आसमान में जितना चाहें ऊंची छलांग लगा लें, पर आना तो उन्हें धरती पर ही पड़ेगा।’ ये बात जितनी बलराज मधोक और आडवाणी पर लागू होती है उतनी ही नरेंद्र मोदी पर भी।
संघ को समझने वाले जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के लिए गली गली, मोहल्ले-मोहल्ले और परिवारों तक पैठ बनाने वाला कार्यकर्ता आरएसएस से ही आता है। नरेंद्र मोदी की मास अपील, विकास के नारे, युवाओं को समझने की उनकी क्षमता के कारण उनके नेतृत्व में लड़ी पार्टियों ने लोकसभा की 336 सीटें जीत लीं। लेकिन अगर आरएसएस कभी अपना हाथ खींच ले और उसका कार्यकर्ता उदासीन हो जाएं- जैसा कि सिख विरोधी दंगों के बाद हुए 1985 के चुनावों में हुआ तो बीजेपी का आंकड़ा दहाई तक भी सिमट सकता है।
वाजपेयी के काल में मोरोपंत पिंगले जैसे संघ के पुरोधा बीजेपी नेतृत्व से इतने नाराज हो गए थे कि उन्होंने बीजेपी को त्याग कर एक नया राजनीतिक संगठन शुरू करने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। इन दूरियों को फिर से नहीं पैदा होने देने के लिए भी संघ अपने राजनीतिक भविष्य को संवारने को तत्पर है।
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