गोवा संघ के सत्ता संघर्ष की प्रयोगशाला
बीजेपी के पास भारतीय जनता युवा मोर्चा के अलावा अपना कोई और मजबूत संगठन है ही नहीं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, इतिहास संकलन समिति, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम – और भारतीय जनता पार्टी तक की भी राजनीति प्रतिबद्धता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति है। इससे यह भी पता चलता है कि संघ अपने आप में इतना मजबूत है कि कभी भी अपने दम पर आगे चल सकता है।
मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ इस नतीजे पर भी पहुंचा है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री और सरकार के प्रमुख के तौर पर सांस लेने लायक जगह दी जानी चाहिए ताकि एक स्टेट्समैन के तौर पर उनकी छवि गढ़ी जा सके और उन्हें छोटे-मोटे मुद्दों से ऊपर माना जाए। संघ की सबसे बड़ी अपेक्षा है कि भाजपा सरकार जल्द से जल्द पूरे भारत पर अपना असर कायम करे। राज्य सरकारों का सहयोग भी चाहिए। देश में संघीय व्यवस्था है, जिसमें केवल केन्द्र के करने से ही सब कुछ नहीं होगा।
और अगर भाजपा को ऐसा करने में कोई दिक्कत पेश आ रही है, या उसमें बगैर स्पष्ट किए अपने को संघ से ऊपर मानने की विचारधारा घर कर रही है, तो संघ उसके लिए भी अपने को तैयार कर रहा है। एक और समानांतर, संघ के प्रति समर्पित स्वयंसेवकों को सरकार बनाने के लिए उकसा कर, गोवा को अपने नए सपने की कर्मभूमि में तब्दील कर। और कांग्रेस अथवा अन्य राजनीतिक पार्टियां इस परिदृश्य को केवल अपने जैसी भविष्य में होती रही टूट समझकर अंधेरे में या भुलावे में ना रहें, भले ही संघ द्वारा बनाई जा रहीं नई पार्टियां भले ही भाजपा को सीधे टक्कर ना दें, उन्हें जरूर मैदान से हमेशा के लिए बाहर कर सकती हैं।
चूंकि, संघ की नीतियां अनेक बार स्पष्ट होते हुए गूढ़ स्वरूप लिये होती हैं, वहीं इस बात को भी कम लोग ही महसूस कर सकते हैं कि जहां सरकार शिक्षा से लेकर संस्कृति तक में संघ की नीतियों को उदारता से जगह दे रही है, वहीं 91 की उम्र में जवां संघ अपने स्वर्णिमकाल में नए सपने की इबारत लिख रहा है, बिना किसी पार्टी के मुखौटे के अपने दम पर सत्ता हासिल करने की इबारत… भारतीय जनता पार्टी के समानांतर चलते हुए खुद के दम पर सरकार बनाने की इबारत…
गोवा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नई ऊंचाई पर पहुंचाने वाले और वहां भाजपा की सरकार बनाने के लिए राह के सभी कांटों को साफ करने वालों में अग्रणी सुभाष वेलिंगकर यदि संघ से रिश्ता टूटने के बाद अपने कार्यकर्ताओं के दम पर सत्ता हासिल करने की ताल ठोंकने लगते हैं, तो इसमें संघ के सपने की इमारत बनाने में लग रही ईंटों, गारे, सीमेंट, लोहा-लंगड़ आदि सभी आगे-पीछे खोजना नामुमकिन नहीं है। सूत्र बताते हैं कि संघ में एकाध व्यक्ति का अलग होना, मुखालफत करना संभव है, लेकिन वेलिंगकर बनना असंभव है। तो क्या यह मान लिया जाए कि संघ वेलिंगकर के कंधों पर नया निशाना साध रहा है, अपनी ही मुखौटा पार्टी भाजपा की केंद्रीय शक्ति को चुनौती देने के लिए उसने गोवा को समानांतर सरकार बनाने के एक अनूठे प्रयोग की प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया है। क्या यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीतियों को सीधे लागू करने की तैयारी है, या सत्ता सुख स्वयं चखने की छिपी लालसा का सामने आना…
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि 1925 से लेकर मोहन भागवत के आने से पहले तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक भिन्न प्रकार का संगठन था, जहां उन्हें राजनीति से केवल परहेज ही नहीं था, बल्कि चिढ़ थी। गुरु गोलवलकर का मानना था कि समाज और संस्कार को पहले बदला जाए, राजनीति अपने आप बदल जाएगी। भागवत के आने के बाद विचारधारा पूरी तरह से बदली कि अब आरएसएस में माना जाता है कि राजनीति अछूत नहीं है। सत्ता हासिल करना जरूरी है भले ही वह भाजपा के माध्यम से हासिल हो, या अपने दम पर वेलिंगकरों के सहारे।
यही नहीं, मोहन भागवत के आरएसएस में आने के बाद संघ की विचारधारा में अब केवल प्रैगमैटिज्म यानी उपयोगितावाद रह गया है। हिंदुत्व वैसे तो कोई मुद्दा नहीं है, लेकिन सेकुलर फार्म में आज भी चुनावी मुद्दा है। भारत को सुपर पॉवर बनाना, स्ट्रांग बनाना, दुश्मनों को उनकी जगह बताना अब सेक्युलराइज्ड हिंदुत्व है। ये हमें स्वाभाविक रूप से दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन यह मौजूद है। हिंदू राष्ट्र के विजन के सेक्युलर डायमेंशन भी हैं।
असल में देखा जाए तो संघ उग्र हिंदुत्व पर नकेल न कस पाने से भी परेशान है और प्रधानमंत्री के दसलखा नामधारी कोट पहनने से भी हैरान है। संघ के भीतर चुनाव के दौर में भाजपा कार्यकर्ता और कैडर को अनदेखा कर नेतृत्व के अहंकार के भी सवाल उठ रहे हैं। पहली बार संघ अपनी राजनीतिक सक्रियता को भी भाजपा और सरकार के नकारात्मक रवैए से कमजोर मान रहा है। आलम यह हो चला है कि संघ के भीतर गुरु गोलवलकर के दौर का ‘एकचालक अनुवर्तित्व’ याद किया जा रहा है और मौजूदा भाजपा नेतृत्व को कटघरे में यह कहकर खड़ा किया जा रहा है कि वह भी 1973 के दौर तक के ‘एकचालक अनुवर्तित्व’ के रास्ते आ खड़ी हुई, जबकि देवरस के दौर से ही सामूहिक नेतृत्व का रास्ता संघ परिवार ने अपना लिया था। ‘एक व्यक्ति ही सब कुछ’ की धारणा जब संघ ने तोड़ दी तो फिर मौजूदा नेतृत्व को कौन-सा गुमान हो चला है कि वह खुद को ही सब कुछ मान कर निर्णय कर ले।
संघ के भीतर भाजपा को लेकर जो सवाल अब तेजी से घुमड़ रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा सवाल पार्टी के उस कैनवास को सिमटते हुए देखना है जो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा को विस्तार दे रहा था। संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो चुका है कि भाजपा नेताओं की पहचान सादगी से हटी है। ‘मिस्टर क्लीन’ के तौर पर अण्णा और केजरीवाल की पहचान अब भी है तो इनसे दूरी का मतलब, इन पर नकारात्मक चोट करने का मतलब क्या है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि संघ की सादगी, तभी काम की जब बीजेपी ने इसमें शाहखर्ची वाले चुनावी प्रबंधन का छौंक डाला? क्या बीजेपी के अकूत संसाधनों के बिना संघ की निष्ठा राजनीतिक जीत दिला सकती है? अगर प्रचारक बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने में सफल रहे तो राजनीतिक संस्कृति को वैभव से बचाने में कैसे असफल रह गए। कई मंत्री नेता संघ की कसम खाते हैं, मगर उनके सिल्क का कुर्ता और शाल की कीमत एक प्रचारक के साल भर के खर्चे से ज्यादा होता है। संघ की तरह बीजेपी नहीं हो सकी तो क्या कहा जा सकता है कि बीजेपी की तरह संघ हो गया है?
चुनावी राजनीति के लिए इतना पैसा कहां से आ रहा है, इतने हेलीकाप्टर कहां से आ रहे हैं। जब संघ के प्रचारक इन बातों से आंखें मूंद लेते होंगे तो उन्हें क्या दिखता होगा। उनके ही कितने प्रचारक बीजेपी में प्रवक्ता और महासचिव बनते ही कितनी तेजी से सादगी छोड़ देते हैं। क्या उनके लिए यह सादगी संपन्नता तक पहुंचने का रास्ता है, एक बहाना है? यह संघ की जीत है या उसकी हार है। यह अब संघ अपने आपको बदलकर सत्ता को अपने कब्जे में करके इन्हीं लालसाओं को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उत्सुक है। या फिर अपने कार्यकर्ताओं के भीतर सादगी को लेकर उमड़ते असंतोष को दबाने का एक नया जरिया। गोवा प्रयोगशाला से जो परिणाम निकलेंगे, उनसे ही इन्हीं सवालों के गूढ़ अर्थों को परिभाषित किया जा सकेगा।
कैसा है वेलिंगकर का नया ‘आरएसएस’
यह इकाई आरएसएस के कोंकण प्रांत का विभाग नहीं रहा, बल्कि खुद में एक प्रांत हो गया है।यह यूनिट गोवा में शिक्षा का माध्यम के तौर पर कोंकणी और मराठी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार पर जोर देगी।2017 के विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक मुद्दों पर नागपुर स्थित मुख्यालय से राय लेने पर विचार कर सकते हैं।ये अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को दिए जाने वाले अनुदान को रद्द किए जाने की मांग कर रहे हैं।यह इकाई राजनीतिक मसलों पर स्वतंत्र तरीके से काम करेगी। कम-से-कम अगले साल के विधानसभा चुनाव तक।गोवा में 2017 में होने वाली विधानसभा चुनाव में यह इकाई भारतीय भाषा सुरक्षा मंच को सपोर्ट करेगी।
गोवा के निहितार्थ
चूंकि, राजनीतिक सत्ता में ही सिस्टम का हर पुर्जा समाया हुआ बनाया जा रहा है, तो विपक्षी दल हो या सडक़ पर नारे लगाते हजारों छात्र या तमाशे की तर्ज पर देश के हालात को देखती आम जनता, हर जेहन में रास्ता राजनीतिक ही होगा। इससे ही यह निष्कर्ष निकलता है कि संघ अब एक अलग तरीके से सक्रिय हो रहा है ताकि यदि मोदी फेल हों, तो वह फेल ना दिखाई दे। गोवा का प्रयोग इससे एक कदम आगे का पड़ाव है कि दूसरे रास्ते पर चलकर संघ कितनी जल्द सत्ता हासिल करने में सक्षम होता है। संघ का आधार वेलिंगकर के सीधे फायदे में दिख रहा है कि वे बिना किसी तैयारी के बैठकों पर बैठकें कर रहे हैं और अपनी पार्टी को मजूबत बनाते जा रहे हैं। इसी कड़ी में वेलिंगकर का राजनीतिक संगठन गोवा सुरक्षा मंच समर्थन एकत्र करने के लिए नवंबर और दिसंबर में गोवा के बड़े शहरों में चार जनसभाएं आयोजित करने जा रहा है। वे कुल 33 निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी पहुंच बनाने का दम भर रहे हैं जिसे जनता का अपार समर्थन मिला है। अब आगामी चुनाव में वेलिंगकर के साथ आने को बेताब शिवसेना को देखकर और भी स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा को चुनौती इस बार कांग्रेस से नहीं संघ से ही मिलेगी, पर अन्य मुखौटे के साथ।
लेकिन, क्या इन बागियों के चलते विधानसभा चुनावों में भाजपा पर विपरीत असर पडऩे की संभावना है? क्या इसके मतों का प्रतिशत गिर सकता है। क्या चुनाव लडऩे का वेलिंगकर का निर्णय भगवा पार्टी के लिए बड़ी चिंता का विषय हो सकता है? चुनावी संभावनाएं जताने वाले हालिया सर्वेक्षण हालांकि गोवा में भाजपा की सरकार आने के दावे कर रहे हैं, लेकिन संघ को कच्ची गोटियां खेलने वाला मान लेना भी सही नहीं होगा। यह जानना जरूरी है कि वेलिंगकर को राज्य में लंबे समय से जमे होने के चलते अनेक क्षेत्रीय दलों का भी समर्थन प्राप्त है और उनके विचारों का समर्थन कर रही शिवसेना भी इसके साथ है। इसके अलावा संघ के समर्पित कार्यकर्ताओं द्वारा भाजपा के पक्ष में और प्रचार न करने से क्या गोवा धीरे-धीरे भाजपा के हाथ से फिसलता नजर नहीं आ रहा है। और तो और कई वरिष्ठ आरएसएस नेता भी खुलेआम कहने लगे हैं कि इस विवाद के चलते भाजपा को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं, क्योंकि अब उसे समर्पित आरएसएस कार्यकर्ताओं का और साथ नहीं मिलने वाला जो घर-घर जाकर भगवा पार्टी के लिए समर्थन जुटाते हैं। सार्वजनिक रूप से भले ही संघ भाजपा का विरोध ना करे, लेकिन कार्यकर्ताओं के केवल घर बैठने मात्र से भी पार्टी को बड़ा नुकसान पहुंचेगा। यही नहीं, भाजपा की चिंताओं को और बढ़ाते हुए नवनियुक्त संघ प्रमुख प्रमुख लक्ष्मण बेहरे ने भी एक तरह से वेलिंगकर की ही बात दोहराई कि वे राज्य सरकार को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश करेंगे कि वह स्कूलों में क्षेत्रीय भाषा को प्रोत्साहित करे।
मौजूदा विवादों पर भाजपा नेताओं का मानना है कि एमओआई मुद्दे को दरकिनार कर वह स्वयं को गोवा में स्वीकार्य पार्टी के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है, जो कि देश के अन्य भागों के बजाय बहुसांस्कृतिक प्रदेश है। परन्तु, इसके राजनीतिक कारण भी हैं। 2012 के विधानसभा चुनावों में बहुत सारे कैथोलिकों ने भाजपा को वोट दिया था और पहली बार भाजपा के पांच कैथोलिक उम्मीदवार भारी अंतर से जीते थे। यही कारण है कि पहले मनोहर पार्रिकर और फिर उनके उत्तराधिकारी लक्ष्मीकांत पारसेकर ने वेलिंगकर की बातें अनसुनी कर दीं।
कांग्रेस और आप, भाजपा व संघ की इस लड़ाई को दूर से देख रही हैं और पूरे विवाद से दूरी बनाए हुए हैं। भाजपा और उसके वैचारिक पैतृक संगठन आरएसएस के बीच इस लड़ाई ने गोवा के आगामी विधानसभा चुनाव मुकाबले को रोचक बना दिया है। अन्यथा यूपी और पंजाब जैसे बड़े राज्यों के चुनाव के मुकाबले यहां के चुनावों पर लोगों का ध्यान नहीं जाता, इन राज्यों में भी साथ-साथ चुनाव होने हैं। गोवा में आप पार्टी के बढ़ते प्रभाव ने भी चुनावों को दिलचस्प बना दिया है। अब यह मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। चुनाव पूर्व रायशुमारी में लहर आप के पक्ष में दिखाई दे रही है। कुछ अस्पष्ट आंकड़ों की मानें तो आप 14 सीट के साथ इस मुकाबले में सबसे आगे चल रही है। उसके बाद क्रमश: भाजपा, कांग्रेस और महाराष्ट्रवादी गोमान्तक पार्टी का नम्बर आता है। भाजपा भी आप के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है और उसे कमतर समझने की मूर्खता नहीं कर रही। वैसे भी जहां-जहां कांग्रेस की वजह से खालीपन आया है, आप ने फायदा उठाया है। जिन इलाकों में कांग्रेस मजबूत थी, वहां आप अपना आधार तलाश रही है।
इस बीच, राजनेताओं में इस बात पर भी कमोबेश एकमत है कि भाजपा-संघ की इस लड़ाई का फायदा एमजीपी को हो रहा है, जिसे निष्कासित वेलिंगकर का समर्थन प्राप्त है। 1961 में पुर्तगाल से आजादी पाने के बाद एमजीपी गोवा पर राज करने वाली पहली पार्टी रही है। लेकिन, उसके बाद इसके वोटों और लोकप्रियता में तीव्र गिरावट देखी गई। एमजीपी फिलहाल अपने तीन विधायकों के साथ भाजपा सरकार का ही एक हिस्सा है और वह भाजपा के साथ ही अगला चुनाव लड़ेंगी, परन्तु जहां तक एमओआई का मुद्दा है तो पार्टी वेलिंगकर के साथ है। इससे संभावनाएं यह भी बनती हैं कि चुनावों की घोषणा होते-होते पार्टी अपना मन भी बदल सकती है क्योंकि वेलिंगकर उन्हें मुख्यमंत्री पद सौंपने का प्रस्ताव खुलेआम दे चुके हैं जिसका सीधा असर चुनाव नतीजों पर पड़ेगा।
कलह के विरोधाभास
ऊपरी तौर पर देखें तो गोवा में संघ के भीतर उठी बगावत यूं तो संघ की छवि को नुकसान पहुंचाने वाली नजर आती है। किसी अन्य राज्य में संघ के भीतर ऐसी खुली बगावत पहले कभी नहीं हुई है। वैसे दलों व संगठनों में मतभेद, कलह और टूट-फूट कोई नई बात नहीं है, पर गोवा प्रकरण को हैरत भरी निगाहों से देखा जाना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि इससे संघ और भाजपा के रिश्तों की कलह और संघ के अपने दम पर सत्ता हासिल करने के इरादे सामने आते हैं। यह भी सच है कि संघ पर लोकतांत्रिक न होने तथा संकीर्णता फैलाने के आरोप लगते रहे हैं, पर उसकी साख एक अनुशासित संगठन की रही है। संघ के कार्यकर्ता अपने नेतृत्व के निर्देशों का पालन जिस भक्तिभाव से करते आए हैं, उसकी मिसाल दूसरे किसी संगठन में शायद ही मिले। लेकिन, गोवा में भाजपा के साथ टकराव इतना बढ़ा कि पार्टी गोवा संघ प्रमुख सुभाष वेलिंगकर को हटवाकर ही मानी, उस व्यक्ति को जिसने मनोहर पर्रिकर को आगे बढ़ाया और गोवा में भाजपा को सत्ता दिलाने की राह आसान की। वेलिंगकर ही चुप नहीं बैठे, उनके पक्ष में संघ के गोवा के सैकड़ों कार्यकर्ता भी ना सिर्फ बगावत पर उतर आए, अपितु उन्होंने अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराने का इरादा जताया है। वेलिंगकर भारतीय भाषा सुरक्षा मंच नाम से एक अभियान चला रहे थे, कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को सरकारी अनुदान बंद किया जाए, और प्राथमिक शिक्षा का माध्यम प्रादेशिक भाषाओं को बनाया जाए। यह मुहिम संघ की सोच के खिलाफ नहीं थी? खुद पर्रिकर इसकी पैरवी करते थे। पर, गोवा में सत्ता में आने पर भाजपा के सुर बदल गए, और पर्रिकर से लेकर मुख्यमंत्री पारसेकर तक, गोवा के तमाम प्रमुख भाजपा नेताओं से वेलिंगकर के रिश्ते तल्ख होते गए। परिणाम सामने हैं।
सत्ता पर पकड़ और सत्ता लालसा
भाजपा के उम्मीदवारों और पदाधिकारियों के चयन से लेकर चुनाव में बूथ संभालने तक संघ की भूमिका दुनिया की नजरों से छिपी नहीं है। भाजपा के सत्ता में आने पर सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों में दखलंदाजी करने, मनचाही नियुक्तियां करवाने तथा अपनी मर्जी के पाठ्यक्रम थोपने से संघ बाज नहीं आता। यह भी सच है कि भाजपा को नियंत्रित करने के चक्कर में संघ दिनोंदिन राजनीति में और उलझता ही गया है। इसके फलस्वरूप केंद्रीय या शीर्ष स्तर पर कोई समस्या फिलहाल भले न हो, पर राज्यों में या स्थानीय स्तर पर उसे असंतोष का सामना जरूर करना पड़ रहा है। केंद्र ही नहीं, जिन राज्यों में भाजपा की सत्ता है, वहां संघ के पदाधिकारियों की पूरी फौज मंत्रियों के साथ समन्वय स्थापित करने के नाम पर सत्ता पर पकड़ बनाए रखती है। अब ये पदाधिकारी किस तरह सत्ता मोह से अलग रह सकते हैं, या फिर इस विचार को कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि जिन पर वे निगाह रखें वे करोड़ों में खेलें और उन्हें सादगी की दुहाई देने के लिए मजबूर किया जाए। इस परिदृश्य में भागवत एक मिनट पहले भाजपा की तारीफ करते हैं, तो दूसरे मिनट कान खींचते हैं कि संभल जाओ, नहीं तो सिंहासन खाली करो कह देंगे। भागवत राम मंदिर के बहाने यह जोर भी देते हैं कि वह हिंदुत्व से भटके नहीं हैं। लेकिन, अब हिंदुत्व नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है, जो कि राम मंदिर और गुजरात वाला हिंदुत्व नहीं होगा। इसके केंद्र में तीन मूल चीजें होंगी- एक, आक्रामक राष्ट्रवाद- जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद और सीमा पर विदेशी घुसपैठ पर खासा जोर है। दूसरी, सांस्कृतिक पुनर्जागरण- भारत के विदेशी संस्कृति और उपभोक्तावाद के संदर्भ में अपनी पुरानी संस्कृति व परंपरा की तरफ लौटने की आवश्यकता। तीसरी चीज है विकास- राज्यों में बीजेपी की सरकारों के जरिये यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि हिंदूवादी मार्ग पर चलकर ही देश को सुपर पावर बनाया जा सकता है। पर क्या वे कामयाब होंगे?
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