शाहिद अंसारी
मुंबई:महाराष्ट्र के डी.जी प्रवीण दिक्षित ने राज्य के सभी पुलिस थानों के लॉकअप में सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश दिए।हालांकि इससे पहले कोर्ट ने भी ऐसे निर्देष जारी किए थे लेकिन कोर्ट के यह आदेश राज्य की पुलिस ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया और सीसीटीवी लगाने की बात को नज़र अंदाज़ करते रहे।
हालांकि अब डी.जी ने इस मामले में कड़ा रुख अपनाया है लेकिन इस में नया कुछ नहीं है।मामला यह है कि बीते एक दो सालों मे लॉकअप में जो मौतें हुई हैं उनके परिजनों का आरोप था कि पुलिस पूछताछ में टार्चर किए जाने के बाद मौत हुई है।इस बात को लेकर राज्य के डी.जी ने आरोपियों को टार्चर किए जाने को लेकर टिप्पणी की है कि बड़े से बड़े आरोपी से पूछ ताछ बिना टार्चर के की जा सकती है।डी.जी के इस फरमान पर पुलिस कितना अमल करती है यह कुछ ही दिन मे साफ़ हो जाए गा।रही बात टार्चर की तो भले ही लॉकअप में पुलिस सीसीटीवी कैमरा मजबूरन लगा दे लेकिन टार्चर करने के और भी बहुत से तरीके हैं जिन पर सीसीटीवी से निगरानी नहीं रखी जासकती।
दूसरी सब से अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने सीसीटीवी को लेकर हर राज्य को कड़े निर्देष जारी किए हैं लेकिन क्या उसके बाद उस सीसीटीवी का असर उन सब मामलों मे दिखाई देगा जिनके लिए सीसीटीवी लगाया जा रहा है।सीसीटीवी के साथ साथ यह जानना बेहद ज़रूरी है कि उसका बैकप कितना है उसका संचालन कहां से होता है और वह किस हद तक काम कर रहे हैं उसकी क्वालिटी क्या है।हिरासत में हुई मौतों के बाद अक्सर पुलिस कर्मी बच जाते हैं क्योंकि यह हम नहीं बल्कि महाराष्ट्र में हिरासत में हुई मौतों के मामले में जो कोर्ट का कनविक्शन रेट आया है वह हैरत में डाल देने वाला है।
महाराष्ट्र में साल 2013 से लेकर 2015 तक पुलिस हिरासत में हुई मौतों का आंकड़ा 17 रहा लेकिन ताज्जुब इस बात का कि 2001 से लेकर 2010 तक महाराष्ट्र में केवल 14 % मामलों में पुलिसकर्मियों के खिलाफ़ आरोपपत्र दाखिल किया गया है और सोने पर सोहागा यह कि इनमें एक भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं पाया गया।जबकि कानून और कायदे की धज्जियां उड़ाने वाले उत्तर प्रदेश में 71 पुलिसकर्मियों के खिलाफ़ आरोपपत्र दाखिल हुए हैं इन में17 पुलिस वालों को दोषी पाया गया है।छत्तीसगढ़ में पुलिसकर्मियों के खिलाफ़ दाखिल किए गए आरोपपत्र में से 80 % को ही दोषी ठहराया गया है।सब से चौंका देने वाली बात तो यह है कि मुबंई में अगर हिरासत में किसी तरह से किसी आरोपी का मौत होती है तो उसकी जांच मुबंई क्राइम ब्रांच करती है जबकि नियम और कानून यह है कि इसकी भी जांच हर जगह के जैसे स्टेट सीआईडी ही करे।चूंकि स्थानी पुलिस और क्राइम ब्रांच का साथ चोली दामन का है और वही अधिकारी जो पुलिस थानों में होते हैं उनके सम्बंध बेहतर होने की वजह से जांच में पक्षपात किए जाने की संभावना भी अधिक होती है।नतीजा यह होता है कि मामले को सही तरीके से छान बीन करने के बजाए पुलिस वालों को ही बचा लिया जाता है।हिरासत में हुई मौतों की जांच स्टेट सीआईडी से करवाई जाती है।महाराष्ट्र के किसी भी पुलिस थाने में अगर हिरासत में मौत होती है तो उसकी जांच स्टेट सीआईडी ही करती है चाहे वह जगह कमिश्नर के अधीन ही क्यों ना आती हो।हालंकि राज्य के दूसरे कमिश्नरेट के अधीन जो भी हिरासत मे मौतें होती हैं उसकी जांच स्टेट सीआईडी के ज़रिए ही करवाई जाती है।ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर मुंबई में होने वाली हिरासत में मौतों की जांच मुंबई पुलिस कमिश्नर के ही अधीन क्राइम ब्रांच से ही क्यों करवाई जाती है जबकि पुलिस थाने और क्राइम ब्रांच के संचालक मुबंई पुलस कमिश्नर ही होते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर पुलिस हिरासत में हर एक 100 मौतों के लिए 2 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया है। जबकि हिरासत में होने वाली मौतों के लिए केवल 26 पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया गया है।सब से खास बात तो यह होती है कि जब खुद पुलिस कर्मियों को सज़ा दिलाने की बात आती है तो वह चार्जशीट दाखिल करते समय ही खत्म हो जाती है।राष्ट्रीय स्तर पर अगर इसका जायज़ा लिया जाए तो हिरासत में होने वाली हर 100 मौत के मामलों मे 34 पुलिस वालों के ही खिलाफ़ चार्जशीट दाखिल की जाती है और बाकी को किसी ना किसी तरह से बीच बचाव कर निपटा लिया जाता है और इस तरह से केवल 12 पुलसकर्मी दोषी पाए गए।
साल 2001 से 2013 के बीच भारत में पुलिस हिरासत में कम से कम 1,275 लोगों की मौत हुई है लेकिन पुलिस हिरासत में होने वाली 50 % से भी कम मौत के मामलों को रिकार्ड पर लिया गया।इस बात का खुलासा राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने अपने आंकड़ों में किया।और कुछ इससे ही मिलते जुलते आंकड़े राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा सूचित न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों या जेल में होने वाली मौत की संख्या काफी अधिक है और हर मामलों को रिकार्ड पर नहीं लिया जाता।ग्राणीण क्षेत्रों की बात की जाए तो यहां इस तरह के मामले आए दिन पेश आते हैं लेकिन रिकार्ड पर मामलों के लेने की बात की जाए तो यह संख्या काफी कम है।साल 2001 से 2010 के बीच न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों की संख्या 12,727 दर्ज की गई है।जबकि इसके बाद के आंकड़े को इकट्ठा किया जा रहा है।सबसे कम मौतों की संख्या साल 2010 में दर्ज की गई है 2010 में हुई मौतों की संख्या 70 रही जबकि सबसे ज्यादा मौतें साल 2005 में रिकार्ड की गई हैं। साल 2005 में हिरासत में हुई मौतों की संख्या 128 है।औसतन भारत में हर वर्ष पुलिस हिरासत में 98 लोगों की मौत होती है।एशियाई मानवाधिकार केन्द्र (एसीएचआर ) की रिपोर्ट की बात की जाए तो यह आंकड़े भी सही नहीं हैं पूरी बारीकी से अगर जांच की जाए तो यकीनन इन आंकड़ों मे इज़ाफा हो सकता है।उनकी रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र किया गया है कि अक्सर घटनाओं को पुलिस थानों में हिरासत मे हुई मौत के तौर पर दर्ज ही नही किया जाता।साल 2001 से 2013 के दौरान महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और गुजरात में हिरासत में होने वाले मौतों के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए हैं जबकि बिहार में ऐसे केवल 6 मामले ही दर्ज किए गए हैं।
बड़े राज्यों में इस साल 2001 से लेकर 2013 तक की इस अवधि के दौरान हरियाणा में हिरासत में होने वाली मौत का हर मामला दर्ज किया गया है।मणिपुर, झारखंड और बिहार राज्यों में भी हिरासत में होने वाली मौतों के 100 % मामले दर्ज हुए हैं लेकिन ताज्जुब इस बात का केवल इन राज्यों ने दो, तीन और छह मौतों की सूचना दी है।इसकी तुलना में महाराष्ट्र में केवल 11.4 % हिरासत में होने वाली मौतों के मामले दर्ज किए गए है।हालांकि यह संभव है कि कई मौतों को एक ही मामले के तहत दर्ज किया गया है।
मामले की सच्चाई को बाहर लाने के लिए मुंबई पुलिस की हिरासत में हुई मौतों को अगर ठीक ढंग से जांच करानी है तो इसकी जांच मुंबई पुलिस से अंतर्गत काम करने वाली यूनिट सीआईडी से लेकर स्टेट सीआईडी के ही सुपुर्द किया जाए तो यकीनन उन इस मामले की सच्चाई बाहर आ सकती है।लेकिन मुंबई पुलिस के अंतर्गत काम करने वाली यूनिट सीआईडी से ही अगर करवाई करवाई जाएगी तो वह जांच और मुंबई पुलिस की जांच में कोई फर्क नहीं होगा और उसका मक्सद पीड़ित को न्याय नहीं बल्कि आरोपी पुलिस वालों को बचाना होगा।
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