भोपाल में ज्यों ही कथित पुलिस मुठभेड़ में सिमी के कथित आतंकी मारे गए, चर्चाओं का अंबार लग गया है। यूं मुठभेड़ें पहले भी चर्चा में आती रही हैं, लेकिन धर्म विशेष से होने के कारण और उत्तर प्रदेश चुनाव के परिदृश्य में इस घटना के बाद राजनेताओं द्वारा धार्मिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण की कोशिशें अभूतपूर्व थीं। जैसे यह नहीं भुलाया जा सकता कि मारे गए आठों लोग आतंकी थे या नहीं, यह अभी साबित नहीं हुआ था, वैसे ही यह भी कि उन्होंने जो भागने के क्रम में हेड कांस्टेबल की गला काटकर बेरहमी से हत्या की, उससे यह जरूर साबित होता है कि वे बर्बर अपराधी थे, जिनसे सहानुभूति नहीं रखी जा सकती। कल से लेकर आज तक की मुठभेड़ों पर सवाल उठाते हुए ध्यान रखना होगा कि सहानुभूति निर्मम हत्यारों की तरह फर्जी एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों के साथ भी नहीं हो। नहीं तो वह लोकतंत्र की हत्या का दिन होगा।
उनके मामले विचाराधीन थे। अब जेल में अलग-अलग जगहों पर रखे गए वे सभी घटना की रात किस तरह एकत्र हुए, कैसे उन्होंने चादर के सहारे ऊंची दीवार फांदी और चम्मच से ताले खोलकर बाहर निकले, बड़ा रहस्य बना हुआ है, जिसकी तह में जाना बेहद जरूरी है। इसके बाद एनकाउंटर की परिस्थितियां समझने, किसी पुलिस वाले द्वारा बनाए वीडियो को देखने और फिर पुलिस अधिकारियों के परस्पर विरोधी बयान सुनने के बाद कोई भी बिना दिमाग लगाए कह सकता है कि संपूर्ण कार्रवाई की पटकथा बेहद मूर्खतापूर्ण है और एक नहीं अनेक सवाल उठाती है। वे आतंकी थे या नहीं, यह तो साबित नहीं हो पाया था, हां,
मणिपुर में 1,528 एनकाउंटर की जांच
हाल ही में मणिपुर में सेना द्वारा फर्जी एनकाउंटर के आरोप वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि सेना और अर्धसैनिक बल मणिपुर में अत्यधिक एवं प्रतिशोध स्वरूप बल का प्रयोग नहीं कर सकते और ऐसी घटनाओं की जांच की जानी चाहिए। इस तरह अब मणिपुर में 1,528 एनकाउंटर की जांच की जाएगी। पूर्व में न्यायालय ने कहा था कि मणिपुर में मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजन को सुरक्षा बलों द्वारा मुआवजा दिए जाने संबंधी तथ्य ‘संकेत’ देते हैं कि यह मुठभेड़ें फर्जी थीं। कथित फर्जी मुठभेड़ के 62 मामले ऐसे हैं जिनमें प्राथमिकी तक दर्ज नहीं की गई।
दिवाली की रात 2 से 3 बजे के बीच सिमी के 8 आतंकी भोपाल जेल से फरार हो जाने की खबर ने लोगों को पाकिस्तान की ओर से लगातार हो रहे हमलों के परिदृश्य में और दहशतजदां कर डाला। वे दहशतजदां हों भी क्यों ना, जो भागे, वे अनेक आतंकवादी गतिविधियों में शामिल ही नहीं थे, दुर्दांत तरीके से उन्होंने भागने से पहले जेल में एक हेड कांस्टेबल का मर्डर भी किया था। आनन-फानन में 5 अधिकारियों को सस्पेंड किए जाने के साथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इन आतंकियों की खबर देने वाले के लिए 5 लाख का इनाम भी घोषित किया। अब एक साथ 8 आतंकवादियों का भोपाल की आईएसओ प्रमाणित सेंट्रल जेल से भागना जितना हैरत से भरा था, उससे भी बड़ी हैरत की खबर यह रही कि पुलिस ने 9 घंटे के आपरेशन के बाद इन सभी आतंकियों को भोपाल के पास ईंटखेड़ी में मार गिराया। मुठभेड़ें पहले भी लोगों को अचंभित करने के साथ उत्साह से भरती रही हैं, पर अब जैसा कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद आजकल ट्रेंड चल रहा है कि जब भी कोई आतंकी ढेर होता है, एक तबका आतंकियों के समर्थन वाली पंक्ति में खड़ा दिखता है, लिहाजा भोपाल जेल से फरार हुए सिमी के आतंकियों को जैसे ही पुलिस ने ढेर किया, उसके साथ ही कई राजनीतिक दल इस मुठभेड़ को फर्जी करार देने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करने में लग गए। कह सकते हैं कि यह छिछली राजनीति की पराकाष्ठा है कि वोटों के तुष्टीकरण के लिए कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों ने आतंकियों का हिमायती बनने में देरी नहीं लगाई, जिसे किसी भी हाल में सही नहीं ठहराया जा सकता, परंतु प्रशासन पर सवाल उठेंगे तो सच्चाई तो सामने लानी ही होगी क्योंकि भारत का कानून मुठभेड़ के नाम पर किसी भी व्यक्ति की हत्या की इजाजत नहीं देता, भले ही वे आतंकवादी क्यों ना हों! सच्चाई का सामने आना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि फर्जी एनकाउंटर की बीमारी बरसों से चली आ रही है। यह बात और है कि अब फर्जी एनकाउंटर काफी हद तक कम हो गए हैं क्योंकि मीडिया बहुत सक्रिय हो गया है। न्यायपालिका का समर्थन कम हो गया है। अनेक मामलों में सजा सुनाई जाने लगी हैं। यह भी सच है कि भारतीय समाज में एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिली हुई है। इसके बावजूद सुरक्षा बलों को इस बात की अनुमति नहीं दी जा सकती कि वे उन अपराधियों को मार गिराएं, जो कि जेल में रहने के बाद भी समाज के लिए लगातार खतरा बने हुए हैं और अदालतें उन्हें सजा नहीं दे पा रहीं, या इसमें बहुत समय और परिश्रम जाया हो रहा है। लिहाजा, जेल से आतंकी कैसे भागे, पूछा जाएगा? रमाशंकर यादव की हत्या कैसे हुई, क्यों नहीं जानकारी मिलनी चाहिए? बहस होगी ही कि जेल प्रशासन नाकाम रहा तो क्यों? पुलिस ने मानवाधिकारों का उल्लंघन किया या नहीं? उसका तरीका गलत है या सही? कहीं उसने संविधान के दायरे से बाहर जाकर काम तो नहीं किया? अगर सवालों में जरा भी सच्चाई सामने आती है तो पुलिस को दोषी मानकर सजा दी जानी चाहिए और अगर संविधान के दायरे में रहकर काम किया गया तो सफलता मानकर इनाम। अफसोस बस इतना है कि मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति के चलते सियासत तेज है, हो भी क्यों नहीं, 5 राज्यों के चुनाव जो नजदीक हैं। बहरहाल, राज्य और केंद्र सरकार का फर्ज है कि वह सिर्फ न्याय पर ध्यान ही न दे, न्याय होता दिखाई भी देना चाहिए, वरना समाज में अव्यवस्था फैलने का खतरा है।
मुठभेड़ सवाल तो उठेंगे, पर! 8 आतंकी, 8 घंटे , 8 किलोमीटर , 8 मौतें और सवाल
सिमी के 8 आतंकवादी रात को ही भोपाल की सेंट्रल जेल से भाग निकले। इन आतंकियों में से 3 वे थे जो खंडवा जेल से भी भागे थे। सब के सब जेल से 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर नहीं जा पाये थे और उन्हें जेल से फरार हुए 8 घंटे ही बीते थे कि सभी एनकाउंटर में ढेर हो गये। ऐसा हैरतअंगेज खेल होगा तो सवाल आखिर पूछे ही जाएंगे…जब केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर पूरे देश में हाई अलर्ट रखे जाने की बात कही गयी थी, जिसमें दीपावली पर्व को लेकर स्पष्ट निर्देश थे तब राज्य सरकार ने उन निर्देशों की अनदेखी क्यों, किसलिए और किसके निर्देश पर की ? जेल मैन्युअल के अनुसार किसी भी जेल में आठ से अधिक दुर्दांत अपराधियों को नहीं रखा जाना चाहिए, तो राजधानी की जेल में एक साथ 35 आतंकवादियों को क्यों रखा गया ? एसएएफ के चार जवान, जिन्हें खास आतंकियों की निगरानी के लिए सरकार ने यहां रखा, जब आतंकी भाग रहे थे तो ये जवान सो क्यों रहे थे ? फरार हुए लोगों को हथियार कहां से और किससे प्राप्त हुए ? इस घटना और गहरे षड्यंत्र के नेपथ्य में कौन कौन सी आंतरिक शक्तियां शामिल हैं ? सेल की निगरानी के लिए चार सीसीटीवी कैमरे हैं, जो कई दिनों से काम ही नहीं कर रहे थे। क्यों उनकी जांच नियमित नहीं की जाती थी ? क्या इन्हें जिंदा पकडऩे की कोशिश की गई थी ? क्या किसी पुलिस वाले ने ही आतंकियों की भागने में मदद की ? क्या जेल से चंद किलोमीटर दूर वाले गांव से किसी ने आतंकियों की मदद की, मगर मदद की तो कैसे की ? कैसे उसने जेल में संपर्क किया?
तीन का पुणे धमाके में भी था हाथ! भोपाल सेंट्रल जेल से फरार होने के बाद मुठभेड़ में मारे गए 8 सिमी आतंकियों में से तीन पर पुणे के फारसखाना पुलिस थाने के पास हुए धमाके में भी शामिल होने का शक था। पुणे के फारसखाना पुलिस थाने की पार्किंग में 10 जुलाई 2014 को एक मोटर साइकिल में धमाका हुआ था। 2013 में खंडवा जेल से फरार आरोपियों में से 4 के उस धमाके में शामिल होने का शक हुआ था। धमाके में महबूब उर्फ गुड्डू, सालिक, अमजद और जाकिर को आरोपी बनाया गया था और तेलंगाना पुलिस से पकड़े जाने के पहले सभी पर 10 लाख रुपये का इनाम भी घोषित किया गया था।
कौन से मामले थे सिमी सदस्यों पर ? शेख मुजीब : 2008 के अहमदाबाद ब्लास्ट में शामिल होने का आरोप। आरोप था कि उसने इंडियन मुजाहिदीन के साथ मिलकर ये धमाके करवाए थे। इन धमाकों में 50 से भी ज़्यादा लोग मारे गए थे।
अकील खिलजी : सिमी का पूर्व राज्य प्रमुख। मार्च 2012 में महाराष्ट्र से गिरफ्तार किया गया था। आरोप है कि ये आरएसएस और भाजपा के प्रमुख नेताओं की हत्या की योजना बना रहे थे।
शेख महबूब : 2008 के अहमदाबाद ब्लास्ट में शामिल होने का आरोप। आरोप यह भी है कि उसने उन्होंने अर्णाकुलम (केरल) में ट्रेनिंग लेकर वहां पर कई घटनाओं को अंजाम दिया है।
अब्दुल माजिद : डकैती, हत्या और देशद्रोह के मामले चल रहे थे। अहमदाबाद बम धमाके के साथ ही पुणे, बिजनौर और चेन्नई में भी धमाके करवाने के आरोप। करीमनग (तेलंगाना) में डकैती का भी आरोप।
मोहम्मद खलिद : हत्या, डकैती, लूट और देशद्रोह के मामले चल रहे थे। करीमनगर (तेलंगाना) में डकैती में शामिल होने का आरोप। अहमदाबाद सहित पुणे, चेन्नई और बिजनौर में धमाकों में भी संदिग्ध।
जाकिर हुसैन : 2014 में हुए बिजनौर में बम बनाते हुए विस्फोट के बाद पकड़े गए चार संदिग्धों में से एक। एटीएम जवान, बैंककर्मी और वकील की हत्या के मामलों के साथ उज्जैन, देवास, रतलाम, मंदसौर में भी कई केस दर्ज।
मोहम्मद सालिक : आरोप है कि वह अपने दूसरे सिमी साथियों के साथ बिजनौर में रहकर देश में धमाके करवाने की साजिश रच रहा था। कई अन्य मामले भी दर्ज।
अमजद खान : भाजयुमो अध्यक्ष, आरएसएस कार्यकर्ताओं पर हमले और पांच बैंक डकैतियों में अभियुक्त।
नए नहीं हैं फर्जी मुठभेड़ के आरोप
प्रतिबंधित संगठन सिमी के कथित सदस्यों को फर्जी मुठभेड़ में मारने के आरोप भोपाल पुलिस पर लग रहे हैं, लेकिन भारतीय पुलिस पर यह आरोप पहली बार नहीं लगा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक साल में पुलिस के खिलाफ 32,498 मामले दर्ज हुए, जिनमें 206 मामले एनकाउंटर के थे। 66 एनकाउंटर मामलों के साथ छत्तीसगढ़ पुलिस इस सूची में सबसे ऊपर थी। उसके बाद असम (43), झारखंड (15), ओडिशा (7) का नंबर था।
गौर करें तो किसी मुठभेड़ पर सियासत पहली बार नहीं हो रही है, पहले भी दिग्विजय सिंह जैसे नेता परोक्ष रूप से पुलिस को कठघरे में और आतंकियों को निर्दोष ठहराने की कोशिश करते रहे हैं। उन्होंने बटला हाउस मुठभेड़ कांड में भी पुलिसकर्मियों को गुनाहगार और आतंकियों को बेगुनाह ठहराने की कोशिश की थी, जबकि इस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के एक बहादुर इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को शहीद होना पड़ा था. लेकिन, दिग्विजय सिंह के साथ तमाम मानवाधिकार संगठनों यह मानने को तैयार नहीं थे कि मुठभेड़ असली है. वे अपनी जुगाली से तब भी बाज नहीं आए जब तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम और पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा कहा गया कि बटला हाउस मुठभेड़ में पुलिस की कार्रवाई सही थी।
यूपीए सरकार के एक अन्य मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो एक चुनावी जनसभा में कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी बटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें देखकर भावुक हो गई थीं. उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े थे. जब पूरा देश मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट में मारे गए 257 लोगों के मुजरिम याकूब मेमन की फांसी पर प्रसन्न था तो कुछ नेता याकूब की फांसी को लेकर सरकार और न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा कर अपनी पीड़ा जता रहे थे. यही नहीं, जब अमेरिका ने पकिस्तान के एबटाबाद में सर्जिकल स्ट्राइक कर विश्व के सर्वाधिक वांछित आतंकवादी ओसामा-बिन-लादेन को मार गिराया, तब दिग्विजय सिंह अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए ओसामा-बिन-लादेन को ‘ओसामा जी’ कहते सुने गए. यही नहीं जब अमेरिका ने ओसामा-बिन-लादेन के शव को समुद्र में डाल दिया, तब दिग्विजय को अपने ‘ओसामा जी’ अंतिम संस्कार की चिंता सताने लगी. उन्होंने दलील दी कि उनका अंतिम संस्कार मजहबी रीति-रिवाज से होना चाहिए।
और तो और मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट मामले में जब संजय दत्त को सजा हुई, तब भी तर्क दिए गए कि चूंकि संजय दत्त के पिता सुनील दत्त मुस्लिम हितैषी थे और मुंबई दंगे में मुसलमानों की हिफाजत की, इसलिए संजय दत्त को माफ कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि जिस समय संजय दत्त ने गुनाह किया था, तब उनकी उम्र महज 33 साल थी, इसलिए वे माफी के हकदार हैं. यही नहीं देश को यह भी याद है कि जब उत्तर प्रदेश राज्य के आजमगढ़ जिले के संजरपुर गांव में आतंकवादियों की धरपकड़ हो रही थी, तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने आसमान सिर पर उठा लिया. उन्होंने संजरपुर जाकर गलतबयानी की और वोटयुक्ति के लिए घडिय़ाली आंसू टपकाए।
इस तरह एक कुप्रवृत्ति यह भी रही है कि कुछ लोग हर आतंकी घटना का रिश्ता-नाता हिंदू संगठनों से जोडऩे का प्रयास करते हैं। 2008 में जब मुंबई बम धमाका हुआ, तब उन्होंने इस धमाके के पीछे हिंदू संगठनों का हाथ बताया था. दरअसल ऐसे वितंडा के पीछे दिग्विजय सिंह जैसे लोगों का मकसद मुस्लिमों की संवेदनाओं से खेलकर उन्हें अपने पाले में लाना होता है. इस बार भी वे ऐसा ही करते नजर आ रहे हैं।
पिता के लिए बेटी की जंग
आई ए एस अधिकारी किंजल के पिता के पी सिंह यूपी पुलिस में डी एस पी थे। जब वो पांच साल की थीं, तब उसके पिता को पुलिस के ही लोगों ने एनकाउंटर कर दिया। एनकाउंटर साबित करने के लिए के पी सिंह के साथ साथ गांव के 12 लोगों को मार दिया। 31 साल तक बेटी ने ये मुकदमा लड़ा। इस बीच वो आई ए एस अफसर बन गईं। मगर, बाप अपराधियों की संगत में एनकाउंटर में मारा गया, कैसे बर्दाश्त कर सकती थीं। 31 साल बाद कहानी ये निकली कि के पी सिंह खुद दो अपराधियों को पकडऩे गए थे, लेकिन पीछे खड़े सब इंस्पेक्टर आर बी सरोज ने उनकी छाती में गोली उतार दी। इंस्पेक्टर सरोज को आजीवन कैद की सजा हुई। 12 पुलिस अधिकारियों को सजा हुई। इनमें हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। इसलिए पुलिस के एनकाउंटर पर सवाल उठते रहे हैं। इसका हिन्दू या मुसलमान से कोई लेना देना नहीं है।
क्या सियासत पहली बार हो रही है…23 साल जेल में ही ट्रायल की सजा
निसार ने जिंदगी के 8150 दिन जेल में गुजारे। जेल से बाहर आकर निसार को लगा कि अब वो सिर्फ एक जि़ंदा लाश की तरह बचा हुआ है। 23 साल तक बगैर किसी गुनाह के जेल में रहने के बाद जब घर आया तो अब्बा इस दुनिया से जा चुके थे। असल में कई राज्यों की पुलिस ने निसार को कई बम धमाकों में आरोपी बनाकर 23 साल तक जेल में रखा, मगर सुप्रीम कोर्ट ने यही कहा कि इकबालिया बयान पर्याप्त रूप से सबूत नहीं है।
राजनीतिक लाभ के पाले में मुठभेड़
देश में जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है, एक बात तो स्पष्ट है कि वह आतंकवाद के मसले पर कठोर है। इससे हट के एक बात पर गौर करें तो यह भी एक सच सामने आया है कि देश के जवानों, पुलिसकर्मियों द्वारा जब भी कोई आतंकी मारे जा रहे हैं, उन आतंकियों के साथ कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, सेकुलर कबीले तथा कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल प्राय: खुलकर खड़े दिखाई दे रहे हैं। जाहिर है इस मुठभेड़ से कई सवाल उठेंगें, लेकिन सवाल का स्वरूप इतना विचित्र होगा यह किसी ने नहीं सोचा था। देश की वर्तमान हालात को समझे तो यह नाज़ुक दौर है। सीमा पर हमारे जवान लगातार शहीद हो रहें, जवाबी हमला भी जम के कर रहे हैं। कई आतंकी संगठनों के निशाने पर भारत है। ऐसे में देश की अंदर सिमी जैसे खतरनाक आतंकी संगठन के 8 आतंकी जो जेल से फरार हों, उन्हें जिंदा कैसे छोड़ा जा सकता था? इसमें कोई दोराय नहीं कि जेल प्रशासन की चूक की वजह से यह शातिर आतंकी जेल से फरार होने में सफल हुए। जांच के बाद स्पष्ट हो जाएगा कि चूक कहां से हुई थी। मुठभेड़ के सहारे राजनीतिक रोटी सेंकने की फिराक में जो राजनेता लगे हुए हैं, वह इस स्याह सच के मुंह क्यों फेर रहे हैं कि आतंकी खूंखार थे तथा कभी भी कोई बड़ी घटना को अंजाम दे सकते थे, फिर उसका जिम्मेदार कौन होता?
आखिर मध्य प्रदेश ही क्यों?
मध्य प्रदेश से सिमी का पुराना नाता है। 2008 में इंदौर में 13 कट्टरपंथियों को गिरफ्तार किया गया था। इसमें सिमी का राष्ट्रीय महासचिव भी शामिल था। 2012 में उज्जैन में एक आतंकी विस्फोटक के साथ पकड़ा गया था। 2013 में खंडवा जेल को तोड़ा गया था। 2013 में ही उज्जैन में 2011 अहमदाबाद ब्लास्ट के आरोपी मोहम्मद शाहिद नागौरी को पकड़ा गया। 2014 में उज्जैन डिस्ट्रिक्ट के महिदपुर गांव में जिलेटिन और विस्फोटक के साथ तीन संदिग्धों को पकड़ा गया था। 2014 में ही उज्जैन के पठान मोहल्ले से एक और बम ब्लास्ट आरोपी को पकड़ा गया था। इंदौर और उज्जैन को सिमी का गढ़ भी माना जाता है।
दोषी कम, पर हिरासत में बढ़े मुसलमान!
हाल ही में जारी हुए एनसीआरबी के 2015 के जेलों के आंकड़ों को देखें तो 2014 के मुकाबले 2015 में जेलों में बंद ऐसे मुसलमान कैदियों की संख्या घटी है, जिन पर अपराध साबित हुआ हो। लेकिन, दूसरी ओर हिरासत में लिए गए मुसलमानों का प्रतिशत 2014 के मुकाबले बढ़ गया है।
दोषी – जिन पर किसी अदालत में जुर्म साबित हुआ हो, की श्रेणी में जेलों में बंद मुसलमानों की संख्या कम हुई है। 2014 में जहां ये कुल दोषी 16.4 फीसदी थे, वहीं 2015 में ये 15.8 फीसदी हो गए। यानी संख्या घटी है।
विचाराधीन – इस श्रेणी में मुसलमान कैदियों का प्रतिशत तकरीबन पिछले साल के बराबर है। 2014 में कुल अंडर ट्रायल कैदियों में मुसलमान 21.1 फीसदी थे, वहीं 2015 में 20.9 फीसदी हो गए।
हिरासत में बंदी – इस श्रेणी में 2014 में ये कुल बंदी कैदियों के 20.3 फीसदी थे तो 2015 में ये 23.8 फीसदी हो गए। जाहिर है कि 2015 में हिरासत में लिए गए लोगों मुसलमानों की संख्या घटी है।
बिना ब्योरे वाले/अन्य की श्रेणी में – 2015 में इस श्रेणी में 51.9 फीसदी (424) मुसलमान हैं, तो 2014 में ये 47.8 फीसदी थे। चूंकि देश में मुसलमानों की आबादी करीब 14 फीसदी है, इस लिहाज से ऊपर्युक्त श्रेणियों में 2015 में अपनी आबादी के अनुपात से क्रमश: डेढ़ फीसदी, 7 फीसदी, 9 फीसदी और 38 फीसदी ज्यादा मुसलमान जेलों में बंद हैं।
बदहाल हैं भारतीय जेलों के हाल
भोपाल सेंट्रल जेल से सिमी कैदियों के फरार होने के बाद सामने आया है कि भारतीय जेलों में सबसे बड़ी दरारें जेलकर्मियों की कमी से वजह से होती हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश की जेलों में कुल 80,236 आवंटित पद हैं, जिनमें सिर्फ 53,008 भरे हैं। यानी 33.9 प्रतिशत पद खाली पड़े हुए हैं. मध्य प्रदेश की जेलों में खाली पड़े पदों की संख्या 28.4 प्रतिशत है। बिहार की जेलों में 66.2 प्रतिशत पद खाली हैं और झारखंड में सबसे ज्यादा 68.5 प्रतिशत पद खाली हैं। राजधानी दिल्ली की जेलों में कुल 2,699 आवंटित पदों में से सिर्फ 1,440 भरे हुए हैं… यानी महज 53.4 प्रतिशत।
एनकाउंटर को स्वीकार्यता… कितनी सही, कितनी गलत
भागलपुर का अंखफोड़वा कांड बहुत ही जघन्य था। बिहार की जनता आम तौर पर पुलिस विरोधी जनता है और जब भी कोई बात होती है तो सडक़ पर निकल आती है। लेकिन, उस कांड की जांच करने जब एक दल गया तो पूरा भागलपुर बंद हो गया। तो सबसे बड़ी दिक्कत है कि सामाजिक रूप से जब आप ऐसी घटनाओं को इस तरह से स्वीकार करेंगे तो पुलिसवालों को भी लगता है कि अगर कानून-कायदा और अदालतें काम नहीं कर रही हैं तो यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह सब कुछ ठीक करे और अपराधी को मार दे। गुजरात एन्टी-टेररिस्ट स्क्वाड के मुखिया रहे डीजी वंजारा जिस इशरत जहां के केस में फंसे थे, उसमें मसला यह नहीं था कि इशरत लश्कर-ए-तैयबा की सदस्य थी कि नहीं, वह तो लश्कर की सदस्य थी। बहस यह होनी चाहिए थी कि क्या राज्य को यह अधिकार है कि आप किसी को भी पकडक़र मार देंगे। अब जब अपराधियों को सजा देने के लिए पुलिस, कानून और अदालतें मौजूद हैं तो किसी को कानून से परे जाकर मारने की प्रक्रिया क्यों अपनाई जाए? लेकिन, फर्जी एनकाउंटर इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है। कारण यह है कि समाज में कुछ ऐसे अराजक तत्व या जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता। अगर पकड़ता भी है तो जमानत हो जाती है। मुकदमे 20 साल चलते हैं। तब तक गवाह टूट जाते हैं। लोग कहते हैं कि इनको मारो और खत्म करो। दूसरे, हमारा जस्टिस सिस्टम ऐसी कछुए की चाल चलता है कि इस तरह की कार्रवाई को सामाजिक मान्यता मिल जाती है। अब आप कह रहे हैं कि इसकी वजह से कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं, यह भी सही है। जब ऐसी छूट दीजिएगा तो जाहिर है कि पुलिस इसका दुरुपयोग करेगी।
…तो उपाय क्या हैं?
विशेषज्ञों की मानें तो इसका एक ही उपाय है कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना प्रभावशाली हो कि जघन्य अपराध में भी एक आदमी को दो साल में सजा हो जाए। इसके लिए पुलिस सुधार चाहिए। न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहिए। जमानत के प्रावधानों में सुधार चाहिए। मामलों का जल्दी से निस्तारण हो। चार्जशीट 60 दिन में फाइल हो जाती है। दो साल में मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए। अभी तो लोगों को सिस्टम में विश्वास ही नहीं है कि आदमी पकड़ा तो गया, लेकिन उसको सजा कहां होगी। शहाबुद्दीन ज्वलंत उदाहरण है। उसने हत्याएं करवाईं और कोई दंड तो दूर, वह एक पार्टी की नेशनल एक्जिक्यूटिव के सदस्य हो गए। ऐसे में हर कोई यही चाहेगा कि ऐसे लोग न रहें तो अच्छा है। समाज के पाप और व्यवस्था के निकम्मेपन की गठरी पुलिस अपने सर पर ढोती है तो फर्जी एनकाउंटर पर कैसे रोक लगेगी?
जिन पर उठी उंगलियां
इशरत जहां
मुंबई से ताल्लुक रखने वाली 19 साल की लडक़ी इशरत जहां को 3 अन्य के साथ 15 जून 2004 को मुठभेड़ में मार गिराया गया। ये चारों लश्कर ए तैयबा से जुड़े हुए थे और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने की साजिश में जुटे थे। घटना के बाद हुई जांच में खुलासा हुआ कि इशरत के साथ चारों की हत्या जान बूझकर की गई थी। गुजरात सरकार ने इस जांच रिपोर्ट को हाईकोर्ट में चुनौती दी।
सोहराबुद्दीन शेख
सोहराबुद्दीन शेख अंडरवल्र्ड से जुड़ा अपराधी था, जिसकी 26 नवंबर 2005 को पुलिस कस्टडी में मौत हुई। मौत के दिन सोहराब अपनी पत्नी के साथ हैदराबाद से महाराष्ट्र जा रहा था। तीन दिन बाद शेख अहमदाबाद के बाहर एक कथित एनकाउंटर में मारा गया। मीडिया के दबाव के बाद मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई। जांच के बाद कथित एनकाउंटर में संलिप्त गुजरात के कई पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी हुई और कइयों को जेल की सजा हुई।
तुलसीराम प्रजापति
तुलसीराम प्रजापति सोहराबुद्दीन शेख का एसोसिएट था। जो शेख के बाद पुलिस कस्टडी में मारा गया। आरोप लगाए गए कि तुलसीराम, सोहराबुद्दीन के मारे जाने का चश्मदीद था। प्रजापति दिसंबर 2006 में मारा गया। 2011 में सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की।
बटला हाउस एनकाउंटर
बटला हाउस एनकाउंटर 19 सितंबर 2008 को दिल्ली के जामियानगर में हुआ। एनकाउंटर के दौरान दो संदिग्ध मारे गए, जबकि दो गिरफ्तार हुए। इस घटना के बाद प्रशासन के खिलाफ जोरदार विरोध के स्वर फूट पड़े। 2009 में मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट दे दी।
अंसल प्लाजा दिल्ली
2002 में दो आतंकी दिल्ली के अंसल प्लाजा के बेसमेंट में मारे गए थे। इस मामले में होमियोपैथिक डॉक्टर हरिकृष्ण (जो खुद को घटना का गवाह बताते थे) ने दावा किया कि एनकाउंटर फर्जी था। बाद में उन्होंने कुछ नामों की सूची जारी की और कहा कि इस घटना के पीछे यही लोग हैं। इसके बाद के वर्षों में हरिकृष्ण कुछ समय के लिए गायब हो गए और बाद में अपने दावों पर कायम नहीं रह पाए।
रामनारायन गुप्ता उर्फ लाखन भैया
कथित रूप से अंडरवल्र्ड डॉन छोटा राजन के गुर्गे रहे रामनारायन गुप्ता मुंबई के उपशहरी इलाके वर्सोवा के पास मुंबई पुलिस के हाथों एक एनकाउंटर में मारे गए। कोर्ट इंक्वायरी शुरू हुई। इसके बाद आश्चर्य जनक रूप से कथित एनकाउंटर में शामिल रहे 22 पुलिस वालों की गिरफ्तारी हुई।
हाशिमपुरा हत्याकांड
यह हत्याकांड 22 मई 1987 को मेरठ शहर में हुआ था। सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए पीएसी को बुलाया गया था। लेकिन, पीएसी के जवानों ने शहर के हाशिमपुरा इलाके के 42 मुसलमानों को पहले पकड़ा और फिर उन्हें मार दिया। उनके शवों को पास के नहर में फेंक दिया गया। कई साल तक इससे जुड़ा मुकदमा स्थानीय अदालत में चला। सुप्रीम कोर्ट के कहने पर इसे दिल्ली की तीस हजारी अदालत में भेज दिया गया। अदालत ने 2015 में दिए अपने फैसले में 16 अभियुक्तों को बरी कर दिया। अदालत ने ये तो माना कि उन 42 लोगों को पीएसी ले गई थी और उन्हें पुलिस हिरासत में मारा गया, लेकिन अभियोजन पक्ष ये साबित नहीं कर पाया कि जिन लोगों पर मुकदमा चलाया गया था, दरअसल उन्हीं लोगों ने उन मुसलमान युवकों को मारा था। हाईकोर्ट में मामला अभी भी चल रहा है।
—माछिल हत्याकांड
मामला 2010 का है। बारामुला के नदिहाल गांव के रहने वाले शहजाद अहमद, रियाज अहमद और मोहम्मद शफी को पाकिस्तान से लगे नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर बहला फुसलाकर ले जाया गया और उन्हें गोली मार दी गई। बाद में उन्हें पाकिस्तानी चरमपंथी बताया गया। जानकारी करीब एक महीने बाद सामने आई और स्थानीय लोगों के विरोध के बाद उनका दफनाया गया शव बाहर निकाला गया। सेना ने 2013 में कोर्ट मार्शल की शुरुआत की। बाद में कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नाएक लक्ष्मी, लांस नाएक अरुण कुमार और राइफलमैन अब्बास हुसैन को आजीवन कारावास की सजा दी गई।
—आंध्र प्रदेश स्मगलर एनकाउंटर
सात अप्रैल 2015 को आंध्र प्रदेश की पुलिस ने राज्य के सेशाचलम जंगल में 20 कथित चंदन तस्करों को गोली मार दी। पुलिस का कहना था कि पुलिसकर्मियों पर हंसियों, छड़ों, कुल्हाडिय़ों से हमला किया गया और बार बार चेतावनी देने के बावजूद हमले जारी रहे। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मामले पर ध्यान दिया और इसकी जांच की। आयोग ने आंध्र प्रदेश सरकार पर सहयोग नहीं करने का आरोप लगाया और इसकी सीबीआई जांच कराने की बात कही थी। राज्य सरकार ने आयोग के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की, जहां यह मामला चल रहा है।
एनकाउंटरों पर सुप्रीम कोर्ट सख्त
पिछले कुछ वर्ष में पुलिस द्वारा किए गए कई एनकाउंटरों पर गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं। इनमें कई आज भी अदालतों में चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मुठभेड़ों के संबंध में पुलिस के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं। हर मुठभेड़ के संबंध में पुलिस को इन दिशा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होगा। खुफिया गतिविधियों की सूचना लिखित या इलेक्ट्रोनिक तरीके से आंशिक रूप में ही सही पर रिकार्ड अवश्य की जानी चाहिए।यदि सूचना के आधार पर पुलिस एनकाउंटर के दौरान आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल करती है और संदिग्ध की मौत हो जाती है तो आपराधिक जांच के लिए एफआईआर अवश्य दर्ज हो।ऐसी मौतों की जांच एक स्वतंत्र सीआईडी टीम करे जो आठ पहलुओं पर जांच करे।एनकाउंटर में हुई सभी मौतों की मजिस्टेरियल जांच जरूरी।एनकाउंटर में हुई मौत के संबंध में तत्काल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य आयोग को सूचित करें। पीडि़त घायल या अपराधी को मैडिकल की सुविधा मिले, मजिस्ट्रेट उसके बयान दर्ज करे।एफआईआर तथा पुलिस रोजनामचे को बिना देरी किए कोर्ट में पेश करें।ट्रायल उचित हो और शीघ्र शीघ्रता से हो।अपराधी की मौत पर रिश्तेदारों को सूचित करें।एनकाउंटरों में हुई मौत का द्विवार्षिक विवरण सही तिथि और फॉर्मेट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य आयोग को भेजें।अनुचित एनकाउंटर में दोषी पाए गए पुलिसकर्मी का निलंबन और कार्रवाई।मृत के संबंधियों के लिए सीआरपीसी के अंतर्गत दी गई मुआवजा योजना अपनाई जाए।पुलिस अधिकारी को जांच के लिए अपने हथियार सौंपने होंगे।दोषी पुलिस अधिकारी के परिवार को सूचना दें और वकील व काउंसलर मुहैया कराएं।एनकाउंटर में हुई मौत में शामिल पुलिस अधिकारियों को वीरता पुरस्कार नहीं दिए जाएं।इन दिशा निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है तो पीडित सत्र न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर सकता है जो इसका संज्ञान अवश्य लेंगे।
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