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बेइमान मीडिया नहीं, राजनीति है…!
कोई राजनीति नहीं
कोई पूर्वाग्रह नहीं
कोई निजी शिकवा-शिकायत नहीं
ठेठ तथ्याधारित विश्लेषण!
क्योंकि, बिरादरी का हूं तो शर्म आती है। किसी गुट का नहीं हूं, तो स्वाभिमान जगता है। पत्रकारीय दायित्व निर्वाह में कोई समझौता नहीं।
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एक वह कालखंड था, जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ‘जूट प्रेस’ और ‘स्टील प्रेस’ कहकर अपनी खीज निकाला करते थे। आज वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘बाजारू मीडिया’ से मीडिया को नवाज रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सारी सीमाएं लांघ सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हैं कि ‘वे (मीडिया) धरती के सबसे बेइमान लोग हैं।’ क्या सचमुच? और स्वाभाविक सवाल कि क्या ट्रंप की बात भारतीय मीडिया पर भी लागू होती है? एक समय था जब, पूरे संसार में ‘भारतीय प्रेस’ को सर्वाधिक विश्वसनीय प्रेस का दर्जा प्राप्त था। निडरता, निष्पक्षता के उदाहरण के रूप में भारतीय प्रेस को प्रस्तुत किया जाता था। अब तक की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में परिचित इंदिरा गांधी के ‘प्रेस सेंसर’ और ‘इमरजेंसी’ जैसे खतरनाक हथकंडों को भी चुनौती देने में तत्पर रहे भारतीय पत्रकार भी आज कुछ सहमे, कुछ दबे नजर आ रहे हैं, तो क्यों? और विचारणीय कि, विश्व महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप, मीडिया को सबसे बेइमान निरुपित क्यों कर रहे हैं?
ट्रंप का आरोप है कि अमेरिकी मीडिया उनके साथ जंग में लिप्त है। अमेरिकी मीडिया झूठी खबरें प्रसारित कर उनकी छवि को धूमिल कर रहा है। उनके शपथ ग्रहण समारोह में जब लाखों लोग उपस्थित थे, मीडिया ने ‘खाली मैदान’ दिखाकर उन्हें अलोकप्रिय साबित करने की कोशिश की। लेकिन, विडंबना के रूप में हमारे अपने देश में उल्टी गंगा बह रही है। यहां प्रधानमंत्री के भाषणों के दौरान प्रायोजित भीड़ को ऐतिहासिक निरुपित करने हेतु मीडिया कर्मियों में होड़ लगी रहती है। जबकि, विपक्षी नेताओं की सभाओं में खाली कुर्सियों और खाली मैदान को दिखाने में भारतीय मीडिया अपनी बहादुरी समझता है। अधिकांश बड़े खबरिया चैनल खोल लें, प्रमाण मिल जाएंगे कि भारतीय मीडिया स्वयं ‘प्रायोजित मीडिया’ की भूमिका निभा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर अन्य दलों की सरकारों की कमी, खामी, कमजारियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत कर उन्हें निकम्मा, विफल साबित करते प्राय: सभी खबरिया चैनल मिल जाएंगे। चैनलों पर प्रतिदिन होने वाली बहसों में ‘एंकर’ की पक्षपातपूर्ण भूमिका कोई भी नंगी आंखों से देख सकता है। बिल्कुल बेशर्मों की तरह ‘एंकर’ सत्ता का साथ देते और विपक्ष की खिंचाई करते देखे जा सकते हैं। अगर ऐसा तथ्याधारित हो, तब तो उनका स्वागत है किंतु, बेशर्म एकपक्षीय भूमिका में तथ्य कहीं नजर नहीं आते। बल्कि, तथ्यों को दबाने के बेशर्म प्रयास स्पष्टत: दृष्टिगोचर होते रहते हैं।
हां, खबरिया चैनलों की तुलना में समाचार पत्र कहीं अधिक संतुलित व विश्वसनीय नजर आते हैं। महिमामंडन व अतिरेक के कुछ दृष्टांत छोड़ दें तो सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष की खबरों के साथ न्याय करते अधिकांश समाचार पत्र मिल जाएंगे। पन्ने के किसी कोने में ही सही, कम-अज़-कम विपक्ष की उपस्थिति मिल जाएगी। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? डर, भय, दबाव, प्रलोभन? किस कारण नतमस्तक हो जाते हैं मीडियाकर्मी, मीडिया मालिक? चर्चा है कि मीडिया को दबाने के लिए सत्ता पक्ष साम-दाम-दंड-भेद की नीति पर चल रहा है। कतिपय दृष्टांत उभरकर आए भी हैं, जिनसे इस बात की पुष्टि होती भी है। खेद है कि डर, दबाव, प्रलोभन के आगे झुक, मीडिया-वंश अर्थात् पत्र-पत्रकार व संचालक अपने सामाजिक दायित्व को भूल नतमस्तक होते जा रहे हैं। अपवाद मौजूद अवश्य हैं, किंतु उनकी नगण्य संख्या नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। तो क्या, अल्पसंख्या में ही मौजूद कलम के निर्भीक, निडर, ईमानदार सिपाही हथियार डाल दें? भारतीय लोकतंत्र की ‘मृत्यु’ में ही ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है। नेहरु, ट्रंप, इंदिरा, मोदी को भूल मीडियाकर्मी अपने अंदर के ‘सुप्त हनुमान’ को जगाएं। अद्वितीय, अजेय है यह ‘हनुमान’। बस एक निर्णय-एक इच्छाशक्ति मीडिया को बाजारू, बेइमान के लांछन से मुक्त करा देगी। और तब, प्रमाणित यह भी हो जाएगा कि धरती के सबसे बेइमान मीडिया नहीं, राजनीति है!
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