एस. एन. विनोद
क्या सच होगी तीसरे विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी
फ्रांस में 16वीं सदी के दौरान कई भविष्यवाणियां कर चुके नास्त्रेदमस की एक और भविष्यवाणी के सच होने का समय आ चुका है। नास्त्रेदमस ने 16वीं शताब्दी में ही प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, नेपोलियन के साम्राज्य समेत तमाम भविष्यवाणियां की थीं, जो सच साबित हुई हैं। पेरिस पर आईएस की ओर से की गए आतंकी हमले से नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी सच होती लग रही है। दरअसल नास्त्रेदमस ने पहले ही इस बात का जिक्र किया था कि 21वीं शताब्दी में तीसरा विश्वयुद्ध होगा। नास्त्रेदमस के अनुसार मेसोपोटामिया की पवित्र भूमि से विश्वयुद्ध छिड़ेगा। भविष्यवाणी के अनुसार ईश्वर के विरोधी ही तीसरा विश्वयुद्ध छेड़ेंगे और ईसाई धर्म को मानने वाले देश आंदोलन से हारना होगा।
क्या आईएस छेड़ेगा तीसरा विश्वयुद्ध
नास्त्रेदमस ने 16वीं शताब्दी में ही 21वीं शताब्दी में तीसरे विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी की थी, जिसका उद्गम उन्होंने मेसोपेटामिया (आधुनिक इराक-सीरिया) को कहा था। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी के मुताबिक मेसोपेटामिया की पवित्र भूमि से ईश्वर के तीसरे विरोधी के उत्थान की बात कही थी, जो अब तक आईएस के रूप में सच होती नजर आ रही थी।
नास्त्रेदमस ने कहा था कि नेपोलियन और हिटलर जैसे ईश्वरविरोधी दुनिया के बड़े हिस्सों में खून बहाएंगे। हुआ भी यही। नेपोलियन ने समूचे यूरोप में मारकाट मचाया और फ्रांस के साम्राज्य को विस्तार दिया। ऐसा ही हिटलर ने दुनिया का किया। अब आईएस के रूप में तीसरे सबसे बड़े ईश्वर विरोधी का उत्भव हो चुका है। नास्त्रेदमस के भविष्यवाणी को अगर इतिहासकारों और विशेषज्ञों की नजर से देखें, तो नास्त्रेदमस ने तृतीय विश्वयुद्ध का संभावित समय 2042 बताया है, जबकि उससे 27 साल पहले ईश्वर के इस शक्तिशाली विरोधी (आईएस) का बढऩा।
नास्त्रेदमस ने कहा कि तृतीय विश्वयुद्ध से पहले पूरी दुनिया बड़ी मारकाट देखेगी, जो 27 सालों तक चलेगी। इस हिसाब से साल 2015 ही वो समय है। और दुर्योग देखिए कि आईएस ने इसी साल दुनिया पर कब्जे की अपनी साजिश पेश की है, जिसमें यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्से पर कब्जे की रणनीति को बताया गया है। नास्त्रेदमस ने उस शैतानी शक्ति का प्रतीक काले रंग को कहा है, और आईएसआईएस के झंडे का रंग भी काला है। वहीं उसके लड़ाके भी काली पोशाक पहने नजर आते हैं।
नास्त्रेदमस ने कहा कि एक पनडुब्बी में तमाम हथियार और दस्तावेज लेकर वह व्यक्ति इटली के तट पर पहुंचेगा और युद्ध शुरू करेगा। उसका काफिला बहुत दूर से इतालवी तट तक आएगा। ( दुसरी सेंचुरी-5वां दोहा ) समुद्री मार्ग से इटली पहुंचने का आसान रास्ता समुद्र ही है और वो देश जहां से पहुंचा जा सकता हो वह लीबिया, अल्जीरिया, मिस्र, सऊदी अरब, तुर्की और इजराइल हैं। इन सभी देशों मे से केवल सऊदी अरब को छोडकर शेष सभी देश युद्धरत हैं, चाहे वह युद्ध आपसी हों या फिर गृह युद्ध। जिस तरह से इराक पर आतंकी कब्जा हो चुका है, उसे देखते हुए यह कहना ठीक ही होगा कि उक्त सभी देश आज नहीं तो कल आतंकियों के हाथ पडऩे वाले हैं।
क्या भविष्यवाणी मोदी को दर्शा रही है?
नास्त्रेदमस ने कहा था कि तीन ओर जल से घिरे, पूर्वी देश में एक शासक पैदा होगा जो गुरुवार को अपना उपासना दिवस घोषित करेगा। इस गैर ईसाई महापुरुष की महानता, सराहना व अधिकारों की चर्चा प्रबल होगी और वह सारी धरती व समुद्रों पर तूफान की तरह हावी रहेगा (सेंचुरी 1- 50)। एशिया में वह होगा, जो यूरोप में नहीं हो सका होगा। एक विद्वान शांति दूत पूर्व के सभी राष्ट्रों पर हावी होगा (दसवीं सेंचुरी -75 दोहा)। इन दो दोहों की व्याख्या के केन्द्र बिंदु नरेन्द्र मोदी दखि रहे हैं। वर्तमान समय में पूर्वी देशों में एकमात्र नरेन्द्र मोदी ही वह व्यक्ति हैं, जो शांतिदूत की भूमिका निभा रहे हैं, चाहे वह पाकिस्तान की बात हो, चीन की, भूटान की या फिर नेपाल की। उन्होंने शुरुआत अपने पड़ोसियों से संबंध सुधारने से ही की और अचानक सारे पड़ोसी भी भारतीयों को अपने से लगने लगे हैं। अब तीसरे विश्व युद्ध के काल में भी मोदी ही सभी देशों को एकजुट करके देश को महाशक्ति बनाने में लगे हैं जिससे नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी सच साबित होती दिख रही है।
‘‘कभी-कभी युद्ध करना पड़ता है।’’
प्रधानमंत्री मोदी के इन शब्दों में क्या युद्ध का आगाज देखा जाएगा? जब देश के प्रधानमंत्री किसी सार्वजनिक मंच से ऐसे शब्द, ऐसे भाव प्रकट करें तब निश्चय ही जनमानस इसे युद्ध की तैयारी के रूप में देखेगा।
‘‘दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की
तरफ बढ़ रही है।’’
ये शब्द हैं रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के। क्या इन शब्दों में भी युद्ध का आगाज नहीं है? निश्चय ही जब एक विश्व महाशक्ति रूस के राष्ट्रपति ऐसी आशंका व्यक्त करते हैं तो उसे एक झटके में खारिज नहीं किया जा सकता।
कुछ तो है जिसमें भारत के प्रधानमंत्री मोदी और रूस के राष्ट्रपति पुतिन को युद्ध की संभावनाओं को सार्वजनिक रूप से चिन्हित करने को मजबूर होना पड़ा।
पड़ोसी पाकिस्तान द्वारा बार-बार ‘सीजफायर’ का उल्लंघन कर भारतीय सेना के जवानों को निशाने पर लेना और कश्मीर सहित देश के अन्य भागों में अपने पाक प्रशिक्षित आतंकियों द्वारा हिंसक घटनाओं को अंजाम देना हर दृष्टि से भडक़ाने वाली कार्रवाईयां हैं। कोई भी देश अपने जवानों और निर्दोष नागरिकों के खून को जाया होते नहीं देख सकता। अगर सीमा सुरक्षा के लिए हमारे जवान शहीद होने को तत्पर रहते हैं तो सरकार की भी यह जिम्मेदारी है कि वह ऐसी जवाबी कार्रवाई करें ताकि दुश्मन फिर सिर न उठा सके। पूर्व में ऐसा हो चुका है। 1965, 1971 और 1999 में भारतीय सेना के जांबाजों ने पाकिस्तान को सबक सीखाया था। 1971 में तो भारतीय सेना ने पाकिस्तान का अंग-विच्छेद कर उसका भुगोल ही बदल डाला था। पूर्वी पाकिस्तान विश्व नक्शे से विलुप्त हुआ, बांग्लादेश का उदय हुआ।
ताजा हालात अत्यंत ही गंभीर हैं। पाकिस्तानी आतंकी जो असल में पाक सेना के ही जवान हैं, हमारी सीमा में प्रवेश कर पठानकोट और उरी जैसे सेना मुख्यालयों पर हमला करते हैं, हमारे जवानों को शहीद बना डालते हैं। अब ऐसे में भारत सरकार चुप कैसे बैठ सकती हैं। सेना सहित आम लोगों के बीच तीव्र आक्रोश व्याप्त है। संयम की भी एक सीमा होती है। आखिर देश कब तक बर्दाश्त करे। संभवत: इस जनाक्रोश और राष्ट्रीय स्वाभिमान को देखते हुए ही प्रधानमंत्री मोदी ने युद्ध की अनिवार्यता को चिन्हित किया है।
दूसरी ओर रूस के राष्ट्रपति जब विश्वयुद्ध की ओर इशारा करते हैं, तब उनके जेहन में निश्चय ही सीरिया रहा होगा। लेकिन, पूर्व सोवियत नेता मिखाइल गोर्वाचोफ ने यह कहकर कि रूस और अमेरिका के बीच तनाव बढऩे से दुनिया एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है, पूरे मामले को गंभीर बना दिया है। अगर रूस और अमेरिका आमने-सामने होते हैं तब विश्वयुद्ध की संभावना प्रबल हो जाती है।
ये ठीक है कि युद्ध कभी भी किसी समस्या का अंतिम समाधान नहीं रहा है। लेकिन जब अति हो जाए, देश की सुरक्षा अखंडता खतरे में पड़ जाए, दुश्मन देश निर्दोषों के खून के प्यासे हो जाएं, तब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा व्यक्त भावना सही दिखने लगती है। ठीक ये भी है कि युद्ध की स्थिति में देश की आर्थिक संरचना तार-तार हो जाती है, जिसका सीधा असर देश के विकास पर पड़ता है। देश वर्षों पीछे ढकेल दिया जाता है। फिर क्या किया जाए?
सबसे बड़ा मानवीय संकट
2011 में सीरिया में कुछ बच्चों की गिरफ्तारी से शुरू हुआ संघर्ष दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया के लिए सबसे बड़ा मानवीय संकट बन चुका है। सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों में 3 लाख लोग जान गंवा चुके हैं। करीब 1 करोड़ लोग बेघर हुए हैं। अगस्त 2012 में अमेरिका ने मामले में हस्तक्षेप किया।
आज अमेरिका और रूस दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। इसे दूसरा शीत युद्ध तो नहीं कह सकते क्योंकि तब हालात अलग थे, पर स्थिति बहुत डरावनी है और किसी नए रूप के शीत युद्ध से आर्थिक मंदी से जूझ रही पूरी दुनिया को ही नुकसान होगा। शीत युद्ध के वक्त अमेरिका पूंजीवादी देश था और रूस साम्यवादी। अब दोनों देश पूंजीवादी हो गए हैं और दोनों के ही दुनिया के कई हिस्सों में उनके आर्थिक और सामरिक सरोकार हैं। असल में किसी तीसरी ताकत की कमी की वजह से ये द्विपक्षीय तनाव और बढ़ा है और इसके हल के लिए दुनिया के अलग-अलग देशों को जल्द साथ आने की जरूरत है।
रूस जीत सकता है तीसरा विश्व युद्ध
यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो इतना यकीन है कि अमेरिका और रूस आमने-सामने होंगे। दोनों ही न्यूक्लियर बम से लैस दुनिया की सबसे बड़ी ताकतें हैं और दूसरे विश्व युद्ध के बाद की दुनिया इन्हीं दोनों के बीच प्रतिद्वंदिता पर टिकी है। लिहाजा, युद्ध की स्थिति में निम्न आंकड़े कहते हैं कि न्यूक्लियर हमला ही निर्णायक स्थिति देगा और यदि ऐसी युद्ध हुआ तो रूस का जीतना लगभग तय है।
1- रूस ने 1,643 न्यूक्लियर मिसाइलें दागने के लिए तैयार रखी हैं, जबकि अमेरिका की 1,642 मिलाइलें तैनात हैं।
2- रूस की सबसे खतरनाक मिसाइल एसएस-18 है। यह एक मिसाइल पूरे न्यूयार्क राज्य, न सिर्फ शहर को, पलक झपकते तबाह कर सकती है। नाटो ने इस मिसाइल का नाम सैटेन दिया है क्योंकि यह दस न्यूक्लियर बम से लैस और इसकी तबाही हिरोशिमा पर गिरे बम से लगभग डेढ़ हजार गुना है।
3- अमेरिका की 80 फीसदी जनसंख्या देश के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में स्थित है। लिहाजा सटीक निशाने वाली कुछ ही मिसाइलें अमेरिका में जीवन का अंत कर देंगी। वहीं, रूस की जनसंख्या भले अमेरिका से बहुत कम है, लेकिन वह पूरे देश में फैली हुई है। जानकारों का मानना है कि इसी के चलते रूस पहले और दूसरे न्यूक्लियर हमले के बाद भी बचा रहेगा।
4- युद्ध में दुश्मन के मस्तिष्क की स्थिति को पढऩे की कला (रिफ्लेक्सिव कंट्रोल) में रूस ने महारत बना रखी है। रूस के जासूस दुनियाभर में अमेरिका के जासूसों से ज्यादा चुस्त हैं और युद्ध के समय इनकी भूमिका रूस की जीत को सुनिश्चित करना है।
5- वहीं, अमेरिका की तैयारी का अंदाजा इसी बात से लगता है कि अब तक दो अमेरिकी प्रेसिडेंट बिल क्लिंटन और जिमी कार्टर न्यूक्लियर हमला करने के लिए जरूरी कोड कार्ड गुम कर चुके हैं। खासतौर से क्लिंटन ने तो कई महीनों तक सूट के साथ कार्ड को ड्राई क्लीनिंग के लिए दे दिया था। वहीं, ऐसी भी घटनाएं सामने आई हैं कि कमांड संभालने वाले अमेरिकी जनरल शराब की लत में पाए गए हैं और वोदका उनका पसंदीदा ड्रिंक है।
रूस ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता तोड़ दिया है और अमेरिका ने सीरिया पर रूस से बातचीत खत्म कर दी है। जानकारों के मुताबिक दो परमाणु शक्ति वाले इन बड़े देशों में बढ़ती रार से पूरी दुनिया को खतरा हो सकता है। परमाणु समझौता से पहले और भी बातें जाननी जरूरी हैं। असल में प्राकृतिक संसाधनों से मिलने वाले यूरेनियम को संवर्धित कर प्लूटोनियम बनाया जाता है जिसका इस्तेमाल परमाणु हथियारों में किया जाता है। पूरी दुनिया में करीब 1,600 टन प्लूटोनियम का भंडार मौजूद है। जानकारों के मुताबिक इसमें से ज़्यादातर परमाणू हथियार रखने वाले देशों के पास है और उनमें भी सर्वाधिक रूस के पास है।
क्रीमिया पर कब्जे को लेकर अमेरिका एवं यूरोपीय संघ द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों ने रूस की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है। ऐसे में रूस ने सीरिया के नाम पर दुनिया को धमकाने का रास्ता ढूंढ निकाला है कि प्रतिबंध नहीं हटे तो परिणाम कितने भयनक सिद्ध होंगे।
नए शीत युद्ध के मायने
साल 2000 में दोनों देशों के बीच हुए इस समझौते के तहत उन्हें अपने भंडार में अतिरिक्त प्लूटोनियम का कम से कम 34-34 टन, अपने संयंत्रों में नष्ट करना था। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के मुताबिक ये 68 टन प्लूटोनियम 17,000 परमाणु हथियार बनाने के लिए पर्याप्त होता है। दोनों देशों के बीच ये समझौता परमाणु क्षमता को घटाने और परमाणु ईंधन को चरमपंथी गुटों की पहुंच से बचाने के लिए था। साल 2010 में उन्होंने इस समझौते पर दोबारा मुहर लगाई थी।
इसी साल अप्रैल में रूस ने कहा था कि अमेरिका जिस प्रकिया से प्लूटोनियम का निपटान कर रहा था, उससे उसे वापस निकालकर परमाणु हथियार में इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि अमेरिका ने इससे इनकार करते हुए कहा है कि निपटान का तरीका समझौते का उल्लंघन नहीं है। लेकिन, असली वजह 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया को अलग किए जाने के बाद, अमेरिका और यूरोपीय संघ के द्वारा रूस के खिलाफ लगाए कई प्रतिबंध हैं। चूंकि, रूस को चोट लगी तो अब वो ये बदले की कार्रवाई के तहत कर रहा हैं।
रूस ने समझौते को दोबारा लागू करने के लिए अमेरिका के लिए कुछ शर्तें भी रखी हैं जिनमें सितंबर 2000 के बाद सैन्य गठबंधन नाटो में जुडऩे वाले देशों में अमेरिका की ताकत कम करने और रूस से सभी प्रतिबंध हटाना शामिल हैं। पिछले महीने से सीरिया में रूसी और सीरियाई सेना के हमले तेज होने के बाद से अमेरिका और रूस के बीच तनाव बढ़ा और अमेरिका ने सीरिया युद्ध पर रूस के साथ बातचीत को निलंबित कर दिया। दोनों देशों में समझौता हुआ था जिसके मुताबिक सीरिया में युद्धविराम लागू होना था और इसके सफल होने की स्थिति में अमेरिका और रूस जेहादियों को निशाना बनाने के लिए संयुक्त सैन्य सेल बनाने पर सहमत हुए थे। अमेरिका ने सीरिया और रूस पर नागरिकों, अस्पतालों और मानवीय सहायता संगठनों को निशाना बनाकर हमले तेज करने का आरोप लगाया है। इससे पहले रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा था कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद को अपदस्थ करने की कोशिशों में अमेरिका एक जेहादी समूह को बचा रहा है। इस तरह सीरिया में रूस, अमेरिका के बीच का तनाव अब छद्म युद्ध की शक्ल ले रहा है, जहां दोनों देश एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं।
सीरिया बना अमेरिका और रूस का अखाड़ा?
क्या सीरिया तीसरे विश्व युद्ध की वजह बन रहा है? या सिर्फ ये कुछ देशों का डर है! इस सवाल का जवाब ढूंढना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन को लग रहा है कि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की तरफ बढ़ रही है। रूस ने अपने सभी अधिकारियों को आदेश जारी कर कहा कि वे विदेशों में रह रहे अपने करीबियों को तुरंत देश वापस ले आएं। पुतिन ने यह कदम फ्रांस दौरा अचानक रद्द करने के बाद उठाया है। अक्टूबर की शुरुआत में पुतिन के मिनिस्टर्स ने एलान किया था कि उन्होंने मास्को के 12 लाख लोगों को सुरक्षित करने के लिए न्यूक्लियर बंकर बना लिए हैं। पूर्व सोवियत लीडर मिखाइल गोर्बाचोव ने भी कहा है कि रूस और अमेरिका के बीच तनाव बढऩे से दुनिया एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। यही नहीं, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक रूस की सेना ने जापान के उत्तर में तैनात अपनी सबमरीन से न्यूक्लियर वॉरहेड ढोने की क्षमता वाले एक राकेट का परीक्षण किया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक रूस ने पोलैंड और लिथुवानिया के साथ लगी सीमा पर भी न्यूक्लियर क्षमता वाली मिसाइलों की तैनाती कर दी है। रूस के इस कदम को अंतरराष्ट्रीय समझौतों को तोडऩे वाला बताया जा रहा है, लेकिन सीरिया संकट को लेकर इस बार रूस किसी समझौते के मूड में नहीं दिख रहा। रूस ने हाल में यह भी कहा कि सीरिया को लेकर अमेरिका के साथ तनाव बढऩे के बीच उसके दो जंगी जहाज भूमध्य सागर में लौट रहे हैं। हाल के दिनों में इसमें तब और तनाव आ गया, जब वाशिंगटन ने सीरिया मसले पर बातचीत से अपने हाथ खींच लिए और रूस पर हमलों को हैक करने का आरोप लगा दिया।
टीआरपी भडक़ा रही युद्धोन्माद
टीआरपी पिपासु टीवी चैनल सेना पर हुए आतंकवादी हमले के बाद लोगों के क्षोभ और शोक का निर्लज्जता के साथ व्यापार कर रहे हैं। दरअसल, मामला हथियारों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार से जुड़ा है। भारत को हथियार बेचने के लिए विदेशी कंपनियां सेना के पूर्व अफसरों को पैसा देकर हथियारों की बिक्री के लिए तरह-तरह से माहौल बनाने का काम करवाती हैं।
देश में युद्धोन्माद पैदा करना और सेना में संसाधनों का अभाव बताना भी इनके इसी उपक्रम का हिस्सा होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन लोगों को इस काम के लिए हथियार कंपनियों से अच्छा- खासा पारिश्रमिक मिलता है। तो देशभक्ति के नाम यह इनका अपना व्यापार है, जो इन दिनों जोरों पर चल रहा है।
जहां तक हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बात है, वे प्रधानमंत्री बनने से पहले भले ही अपने 56 इंची सीने की दुहाई देते हुए पाकिस्तान को उसी की भाषा में सबक सिखाने की बात करते रहे हों, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी की खिल्ली उड़ाते रहे हों, लेकिन आज प्रधानमंत्री होने के नाते वे भी नहीं चाहते होंगे कि युद्ध हो। अगर वे पहले की तरह पाकिस्तान को सुर्ख आंखों से देखते होते तो अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को नहीं बुलाते। वे नवाज शरीफ के साथ शॉल और साड़ी वाली डिप्लोमेसी भी नहीं चलाते और अफगानिस्तान से लौटते वक्त अचानक पाकिस्तान जाकर शरीफ को जन्मदिन की मुबारकबाद भी नहीं देते। जाहिर है कि प्रधानमंत्री के रूप में वे भी युद्ध के दुष्परिणामों से बेखबर नहीं हैं। यही वजह है कि मीडिया और सेना के तमाम पूर्व अधिकारियों द्वारा युद्ध का माहौल बनाए जाने के बावजूद उरी हमले पर उनकी सरकार की ओर से बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया आई जिसमें कहा गया कि भारत इस हमले का माकूल समय और स्थान पर माकूल जवाब देगा।
विकल्प क्या?
सवाल उठता है कि जब हर तरह से युद्ध हमारे लिए हानिकारक है तो फिर इसका विकल्प क्या? पाकिस्तान की हरकतों और आतंकवाद से हम कैसे निपटें? जवाब है कि हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका समेत दुनिया के दूसरे देशों से गुहार जरूर करें लेकिन ऐसा करने के पहले हमें इस दिशा में खुद ही पहल करनी चाहिए। आखिर भारत खुद ही पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कर उसके साथ अपने राजनयिक और व्यापारिक रिश्तों को खत्म भले ही न करें, पर उन्हें स्थगित तो कर ही सकता है। हमने उसे ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का जो दर्जा दे रखा है उस दर्जे को और उसके साथ सिन्धु नदी के पानी के बंटवारे की संधि को क्यों खत्म नहीं किया जाता? अगर भारत ऐसे कदम उठाता है तो पाकिस्तान पर निश्चित रूप से कारगर दबाव बनेगा। अलबत्ता इन कदमों से हमारे यहां के कुछ उद्योग समूहों के हित जरूर प्रभावित हो सकते हैं जिनके कारोबारी रिश्ते गहरे तौर पर पाकिस्तान और वहां के सत्ता प्रतिष्ठान से ताल्लुक रखने वाले लोगों के साथ जुड़े हैं। पाकिस्तान के खिलाफ अपने स्तर पर की जा सकने वाली इस तरह की राजनयिक और आर्थिक नाकेबंदी के साथ ही हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था और खुफिया तंत्र को भी चाक-चौबंद करने के उपाय करने चाहिए। हर आतंकवादी हमले के बाद इस मोर्चे पर हमारी कमजोरियां उजागर होती हैं और सरकार की ओर से इन कमजोरियों को दुरुस्त करने की बात भी होती है लेकिन होता कुछ नहीं है। इन कमजोरियों को दूर किए बगैर अगर हम पाकिस्तान का रण-निमंत्रण स्वीकार कर भी लें तो उससे मसले का कोई दीर्घकालिक हल नहीं निकल सकता।
अमेरिका का पाकिस्तान को उपदेश देना और भारत के पक्ष में उतर आना केवल ढोंग है। लेकिन, यदि युद्ध हुआ तो भारत मैदान में अकेला ही दिखाई देगा क्योंकि रूस भी अब आंखें बंद करके समर्थन करने वाला नहीं है। इसलिए मोदी भले ही युद्ध की आशंका जाहिर करें, उन्हें परिस्थितियों को नजरअंदाज नहीं करना है। उन्हें रास्ता निकालना होगा कि भारत-पाकिस्तान दोनों ही गरीबी, बेरोजगारी से ग्रसित हैं तो वे क्यों अच्छे पड़ोसी की तरह नहीं रह सकते?
क्या प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं युद्ध
…तो किस से लड़ेंगे प्रधानमंत्री
प्रधानमंत्री मोदी ने पहले पाकिस्तान से कहा कि हमें गरीबी, अशिक्षा से लडऩा है, दोनों मुल्कों के सामने ये समस्याएं हैं, दोनों को लडऩा है, लेकिन वह बताना भूल गए या नहीं बताना चाहते रहे, कि वर्तमान आर्थिक नीतियों के सहारे इनसे लड़ा नहीं जा सकता है या उल्टे ये समस्याएं तो और बढ़ेंगी? क्योंकि भारत के विकास और देश के भविष्य को देखते हुए युद्ध उसके पक्ष में नहीं ही है। हां, केवल चुप रह जाने से भी हल नहीं निकलेगा। इसके बावजूद अब उन्हें ऐसे प्रयासों पर भी ध्यान देना होगा कि भारत-पाकिस्तान आपस में बैठकर समस्या का समाधान निकालें। दुनिया में हथियारों के सौदागर तो युद्ध चाहेंगे ही। बहरहाल यह कठिन समय है। एक-एक दिन भारी पड़ रहा है। देश में संशय की स्थिति है और अफवाहों का बाजार गर्म किया जा रहा है। लेकिन इस युद्धोन्माद में नहीं फंसते हुए भारत-पाकिस्तान को अगर दुनिया के साथ कदमताल करनी है तो उन्हें साथ बैठना ही होगा।
मीडिया तो बौरा गया है, माना जा सकता है कि सरकार सिर्फ भावनाओं के वशीभूत होकर काम नहीं करेगी। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में घुसकर आतंकी ध्वस्त कर भारत ने पाकिस्तान को चेताया है। कुछ लोग इस पर कुछ इस तरह प्रसारित कर रहे हैं मानो भारत ने पाकिस्तान पर हमला कर दिया।
जरूरत सुरक्षा अभेद्यता की
पाकिस्तान के आतंकवाद के रूप में भारत के साथ छेड़े छद्म युद्ध से निजात पाना अतिआवश्यक है। इसके लिए आवश्यक यह है कि भारत अपनी आन्तरिक सुरक्षा की समीक्षा करते हुए उसे हर स्थिति में अभेद्य बनाये। युद्ध की स्थिति में भी तो सेना और संसाधनों का प्रयोग होगा। तब फिर उसी सेना का प्रयोग हम आतंकी गतिविधियों को विफल करने में क्यों नहीं कर सकते? जैसा कि उरी और नौगाम में 11 आतंकियों को मारकर किया भी गया। घाटी में चल रहे खोजो और मारो जैसे अभियान बहुत पहले से चलने चाहिए थे। भारत को अपने खुफिया-तन्त्र को भी और अधिक मजबूत करना होगा। उरी हो या पठानकोट, हर कहीं खुफिया-तन्त्र की नाकामी और सुरक्षा-अभेद्यता की कमी सर्वथा उजागर हुई है। साथ ही भारतीय तन्त्र में छुपे जयचंदों की भी पहचान आवश्यक है। पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित कराने की पहल के लिए भारत के कूटनीतिक प्रयास और अधिक तेज होने चाहिए। यह सही वक्त भी है क्योंकि इस समय अमेरिकी सीनेटरों की बहुत बड़ी संख्या पाकिस्तान के विरोध में है। साथ ही भारत को पाकिस्तान के साथ न केवल दोस्ती की बात भूल उसे लाभ पहुंचाने वाली प्रत्येक सुविधा पर विराम लगा देना चाहिए, तभी भारत दबाव बना पायेगा। पाकिस्तान पर सीधी सैनिक कार्रवाई करने से पूर्व भारत को उसके दुष्परिणामों पर गम्भीरता से विचार करना होगा। हमारी सुरक्षा चूक हमारी सबसे बड़ी विफलता है। हमें पहले सुरक्षा तन्त्र को अभेद्य बनाना होगा। अन्यथा हम ‘अपना माल न ताके चोर को गाली दे’ कहावत को ही चरितार्थ करते रहेंगे।
ना पालें अमेरिका की दोस्ती का मुगालता
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बड़ा मुगालता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा उनके व्यक्तिगत दोस्त हैं। इसी मुगालते के चलते हमारी सरकार ने अमेरिका को अपना सामरिक साझेदार बनाते हुए उसकी सेना को अपने वायुसेना और नौसेना अड्डों के उपयोग की अनुमति दे दी। लेकिन, यह सूचना भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिका ने उरी हमले की निंदा तो की, लेकिन पाकिस्तान का जिक्र तक नहीं किया। वह पाकिस्तान की करतूतों पर परदा डालता रहा है। वजह है कि हथियार खरीदी में पाकिस्तान भी कोई छोटा ग्राहक नहीं है और अमेरिका ने पाकिस्तान में सैन्य अड्डा बना रखा है और पाकिस्तानी सैन्य अड्डों का इस्तेमाल भी करता है।
क्या पाक को और काट दें?
हमें विचार करना होगा कि क्या हमारी सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तानी आतंकवाद का खात्मा कर पाएगी? यदि नहीं, हम क्या करेंगे जब अगली आतंकी हमले होंगे, तब? क्या एक और सर्जिकल स्ट्राइक होगी और क्या हमें कुछ बड़ा करना होगा? हमने उनके देश को आधा काट दिया, लेकिन उन्होंने अभी भी सबक नहीं लिया। क्या वे इससे सीखेंगे, यदि हम फिर से इन्हें आधा काट दें? हालांकि, इसके लिए बहुत हत्याओं और मौतों की जरूरत होगी। क्या हम अपनी जिंदगी जारी रखेंगे, जब कुछ समय के दौरान नवीनतम मौतें बीती बात लगें? क्या युद्ध को नियति मानना सही होगा?
बेहद घातक और तेज होगा तृतीय विश्व युद्ध
अमेरिकी सेना के शीर्ष अधिकारियों का कहना है कि तृतीय विश्व युद्ध ‘अत्यंत घातक है और तेजी से’ हो जाएगा। स्मार्ट हथियारों और आर्टिफिशिएल इंटेलीजेंस से युद्ध की गति बदल जाएगी। आधुनिक राष्ट्र आक्रामक कार्रवाई करते हुए दुश्मन बन सकते हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि भविष्य में देश के बीच युद्ध होना लगभग तय है। एसोसिएशन ऑफ द यूएस आर्मी की वार्षिक बैठक के दौरान मेजर जनरल विलियम हिक्स ने कहा कि हो सकता है कि ‘घटनाओं की गति मानव क्षमताओं को तनाव में ला दे। भविष्य में मशीन जितनी तेजी से फैसले ले सकेगी, वह हमारी योग्यता को चुनौती देगा। ऐसे में मशीन और इंसानों के बीच नए संबंध की मांग होगी। चीन और रूस दोनों ही देश बड़े पैमाने पर पारंपरिक सेनाओं को हैं कि इक_ी कर रहे हैं और तेजी से तकनीकी को बढ़ा रहे हैं। वे पेंटागन पर मजबूर कर रहे हैं कि वह अमेरिका उस पैमाने की हिंसा को देखने के लिए तैयार रहे, जो कोरिया के बाद से अमेरिकी सेना ने नहीं देखी है।’ इसी कार्यक्रम में आर्मी चीफ ऑफ स्टाफ जनरल मार्क ए मिले ने कहा कि भविष्य में कुछ राष्ट्र के बीच युद्ध होना ‘लगभग तय है’। उन्होंने चेतावनी दी कि भविष्य में आकाश में अमेरिकी वायु सेना की श्रेष्ठता खत्म हो सकती है, जो उसने कोरियन युद्ध के बाद से हासिल की थी।
विश्व में लगातार बढ़ रही अशांति
इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनोमिक्स एंड पीस की रिपोर्ट ग्लोबल पीस इंडेक्स, 2015 बताती है कि विश्व में लगातार अशांति बढ़ रही है. क्या हमने कभी यह सोचा है कि दुनिया की 720 करोड़ लोगों की आबादी में से दुनिया के 20 शांत देशों में कुल 50 करोड़ लोग रहते हैं, जबकि 230 करोड़ लोग दुनिया के 20 सबसे अशांत देशों में रह रहे हैं. यहां शांति की स्थिति को मापने के 5 पैमाने ये हैं – जनसंख्या में से शरणार्थी और आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या, आंतरिक टकरावों में होने वाली मौतें, आतंकवाद का असर, हिंसक प्रदर्शनों-विरोध और आपराधिकता का स्वभाव. वर्ष 2008 में इन पांच में से तीन संकेतों से प्रभावित देशों की संख्या तीन (सोमालिया, इराक और सूडान) थी, जो वर्ष 2015 में बढक़र 9 (सीरिया, अफगानिस्तान, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, दक्षिण सूडान, कांगो और पाकिस्तान जुड़े) हो गई.
दुनिया के शांत और अशांत देश
दुनिया में पांच सबसे शांत देश आइसलैंड, डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड और स्विट्जरलैंड माने गए हैं जबकि पांच सबसे अशांत देश सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, साउथ सूडान और सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक रहे. 162 देशों की सूची में भारत 143वें स्थान पर रहा. अमेरिका भी सबसे शांत देशों में नहीं है, इसका स्थान 94वां है. क्यूबा, मोरक्को, अंगोला, बोलीविया, होंडुरास श्रीलंका, म्यांमार, कीनिया भारत से बहुत बेहतर स्थिति में हैं. रूस 152वें स्थान पर है. इजराइल 148वें, पाकिस्तान 154वें, उत्तर कोरिया 153वें स्थान पर है.
प्रसन्नता, सुख और शांति को विकास का सूचक मानने वाले भूटान का स्थान 18वां है.
हिंसा की कीमत
केवल एक साल (वर्ष 2014) में दुनिया के छह देशों के उदाहरण से अशांति के असर का अंदाजा लगाया जा सकता है. सीरिया में एक साल में 71667 लोग मरे, 95.50 लाख लोग विस्थापित हुए. 30.29 लाख लोग शरणार्थी बने. 56.73 अरब डालर का नुकसान हुआ। यह सरिया से सकल घरेलू उत्पाद का 42 प्रतिशत हिस्सा है. इराक में 18489 लोग मरे. 23.30 लाख लोग विस्थापित हुए. 1.52 खरब डालर की कीमत चुकानी पड़ी. यह राशि इराक के सकल घरेलू उत्पाद का 31 प्रतिशत है. यमन में 3836, लीबिया में 3060, इजराइल में 2414, लेबनान में 360 लोग मरे. इन छह देशों ने युद्धों के लिए 271.55 अरब डालर की कीमत चुकाई. हमें यह याद रखना होगा कि युद्ध किसी मकसद से रचे जाते हैं. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लगभग सभी युद्ध हथियारों की बिक्री, तेल पर कब्जे और एक खास समुदाय के अस्तित्व को खत्म करने के मकसद से रचे गए.
वर्ष 2001 के बाद 15 सालों में युद्धों में अमेरिका ने 4.79 ट्रिलियन डालर (4.79 के बाद 12 शून्य) का निवेश किया है. यह निवेश शांति के लिए नहीं प्रभुसत्ता के लिए किया गया निवेश था। सहमत न हों तो, एक बार फिर से शान्ति की आधुनिक परिभाषा पढि़ए! अमेरिका डालर छाप कर दूसरे देशों की मुद्रा को कमजोर करता है और दूसरे देशों के संसाधन को अपने हितों में इस्तेमाल करके उन्हें खोखला करता जाता है. आखिर में दो-चार देशों को छोडक़र बाकी दुनिया अमेरिका के सामने हर कोण से झुक जाती है.
…तो पाकिस्तान पर होगी पैसों की बरसात
जहां तक चीन का सवाल है, उसके तो और भी ज्यादा हित पाकिस्तान के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत-पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में कौन किसके साथ रहेगा! यह सच है कि पाकिस्तान लगातार भारत को उकसाने वाली हरकतें कर रहा है। सीमा पर उसकी सैन्य हलचलों में तेजी आ गई है। जाहिर है कि वह भारत को युद्ध के लिए आमंत्रण दे रहा है। वह चाहता है कि युद्ध हो ही। इस समय पाक की आर्थिक हालत बेहद खस्ता हो रही है। उसे भरोसा है कि भारत के हमला करने की स्थिति में चीन और सऊदी अरब जैसे देश उस पर पैसों की बौछार कर देंगे। उसका भरोसा निराधार भी नहीं है। ये देश ही नहीं, बल्कि अमेरिका और कुछ यूरोपीय देश भी पाकिस्तान को उसके हर संकट के समय आर्थिक मदद करते रहे हैं। एक तरह से इन देशों की मदद से ही पाकिस्तान का पालन-पोषण हो रहा है।
भारत–चीन युद्ध
20 अक्टूबर 1962 को पड़ोसी चीन ने विश्वासघात करते हुए अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख की सीमा पर धावा बोल दिया। इस युद्ध में भारत की शर्मनाक हार हुई और चीन ने अक्साई चिन पर अधिकार कर लिया।
भारत–पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध से आज तक के संघर्ष
देश विभाजन के बाद नए पड़ोसी बने पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया। यह लड़ाई 31 दिसम्बर 1948 को समाप्त हुई और इसमें दोनों देशों के लगभग 1500-1500 सैनिक मारे गए तथा पाकिस्तान ने कश्मीर के एक भूभाग पर अधिकार कर लिया।
भारत–पाकिस्तान युद्ध (1965)
भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद पर जारी तनाव ने 1965 में युद्ध का रूप ले लिया। भारतीय फौजों ने पश्चिमी पाकिस्तान पर लाहौर का लक्ष्य कर हमले किए। तीन हफ्तों तक चली भीषण लड़ाई के बाद दोनों देश संयुक्त राष्ट्र प्रायोजित युद्धविराम पर सहमत हो गए। भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान के बीच ताशकंद में बैठक हुई जिसमें एक घोषणापत्र पर दोनों ने दस्तखत किए। इसके तहत दोनों नेताओं ने सारे द्विपक्षीय मसले शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का संकल्प लिया। दोनों नेता अपनी-अपनी सेना को अगस्त, 1965 से पहले की सीमा पर वापस बुलाने पर सहमत हो गए। लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद समझौते के एक दिन बाद ही रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई।
भारत–पाक के मध्य तीसरा युद्ध
सन् 1971 में एक बार फिर भारत और पाकिस्तान आपस में भिड़ गए। परिणामस्वरूप एक नए देश बांग्लादेश (25 दिसम्बर 1971) का जन्म हुआ। शिमला समझौते के अंतर्गत दोनों देशों के बीच शांति स्थापित हुई।
कारगिल की लड़ाई
जुलाई, 1999 में भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ की जानकारी मिली जिसके बाद भारतीय सेना ने घुसपैठियों के विरुद्ध कार्रवाई आरंभ कर दी। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप पाकिस्तानी सेना और घुसपैठिये पीछे हटे।
हिंसा की कीमत
केवल एक साल (वर्ष 2014) में दुनिया के छह देशों के उदाहरण से अशांति के असर का अंदाजा लगाया जा सकता है. सीरिया में एक साल में 71667 लोग मरे, 95.50 लाख लोग विस्थापित हुए. 30.29 लाख लोग शरणार्थी बने. 56.73 अरब डालर का नुकसान हुआ। यह सरिया से सकल घरेलू उत्पाद का 42 प्रतिशत हिस्सा है. इराक में 18489 लोग मरे. 23.30 लाख लोग विस्थापित हुए. 1.52 खरब डालर की कीमत चुकानी पड़ी. यह राशि इराक के सकल घरेलू उत्पाद का 31 प्रतिशत है. यमन में 3836, लीबिया में 3060, इजराइल में 2414, लेबनान में 360 लोग मरे. इन छह देशों ने युद्धों के लिए 271.55 अरब डालर की कीमत चुकाई. हमें यह याद रखना होगा कि युद्ध किसी मकसद से रचे जाते हैं. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लगभग सभी युद्ध हथियारों की बिक्री, तेल पर कब्जे और एक खास समुदाय के अस्तित्व को खत्म करने के मकसद से रचे गए.
वर्ष 2001 के बाद 15 सालों में युद्धों में अमेरिका ने 4.79 ट्रिलियन डालर (4.79 के बाद 12 शून्य) का निवेश किया है. यह निवेश शांति के लिए नहीं प्रभुसत्ता के लिए किया गया निवेश था। सहमत न हों तो, एक बार फिर से शान्ति की आधुनिक परिभाषा पढि़ए! अमेरिका डालर छाप कर दूसरे देशों की मुद्रा को कमजोर करता है और दूसरे देशों के संसाधन को अपने हितों में इस्तेमाल करके उन्हें खोखला करता जाता है. आखिर में दो-चार देशों को छोडक़र बाकी दुनिया अमेरिका के सामने हर कोण से झुक जाती है।
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