एस. एन. विनोद
आज अखिलेश की स्थिति अपने ही पार्टी के अंदर ‘बेचारे’ की हो गई है। अखिलेश की ना तो सरकार में चल रही है और ना ही पार्टी के अंदर। उनके सारे अपने उनके लिए विपक्ष की भूमिका आ खड़े हुए हैं। मुलायम सिंह ने यह कह कर कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का चयन विधायक करेंगे, इस बात को और बल दे दिया कि बाप बेटे में सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है। भले ही समाजवादी पार्टी के सारे बड़े नेता यह भरोसा जगाते दिखते हों कि पार्टी में सब कुछ ठीक है, पर ऐसा लगता नहीं। तो क्या अखिलेश अपने को चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की तरह पा रहे हैं, जहां उनके बाप-चाचा ही उन्हें घेरने में लगे हैं।
‘बाहरी’ पड़ रहा भारी
हाल ही में अखिलेश यादव ने अपने संघर्ष और राजनीतिक हक की लड़ाई का जिक्र किया था। अखिलेश ने ये भी कहा कि उन्हें मुश्किल परिस्थितियों में फंसाया जा सकता है, लेकिन हराया नहीं जा सकता। फिर अखिलेश ने बताया कि आगे की लड़ाई भी उन्हें खुद ही लडऩी पड़ेगी। अखिलेश बोले, ‘ठीक उसी तरह मुझे लगता है कि किसी और का इंतजार किए बिना मुझे अकेले अपने दम पर ही चुनाव प्रचार करना होगा।’ लगता है अखिलेश का ये बयान मुलायम को सबसे ज्यादा नागवार गुजरा है। यही वजह है कि जब प्रेस कांफ्रेंस में समाजवादी पार्टी के सीएम उम्मीदवार के सवाल पर वे बेहद गुस्से में नजर आये। मुलायम ने साफ तौर पर कह दिया कि सीएम का फैसला विधायक मिल कर करेंगे। क्या मुलायम ये सब किसी के कहने पर कर रहे हैं? क्या इसके पीछे अमर सिंह का भी हाथ हो सकता है? क्या अखिलेश ने जिस बाहरी का जिक्र किया था वो अमर सिंह ही थे या कुछ और भी बाहरी हैं? कहीं मुलायम ने शिवपाल को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाये जाने के संकेत तो नहीं दिये हैं? अखिलेश को हटाकर मुलायम ने हाल ही में शिवपाल को यूपी की कमान सौंप दी थी, कहीं ये उसी का एक्सटेंशन तो नहीं। कहीं मुलायम चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री बदलने के बारे में भी तो नहीं सोच रहे। अगर अखिलेश के हालिया बयानों पर नजर डालें तो इसका जवाब ढूंढा जा सकता है, लेकिन बाकी सवालों के जवाब मिलना अभी बाकी है।
अब यह बात और है कि रामगोपाल यादव के उनके समर्थन में खड़े होने और मुलायम को पार्टी के पतन का जिम्मेदार बताते हुए कड़ी और खुली चिट्ठी लिखने के बाद स्थितियां अखिलेश के पक्ष में तो दिख रही हैं क्योंकि मुलायम रामगोपाल को मनाने पहुंचे और चचा शिवपाल भी यह कहने को मजबूर हो गए कि अखिलेश को ही चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा जाएगा। अब इस डैमेज कंट्रोल के नतीजे क्या होंगे, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन पार्टी को जो नुकसान हो चुका है, उसकी भरपाई अब किसी भी बयान से नहीं की जा सकती। प्रदेश में अत्याचारों और भ्रष्टाचार की इन पांच वर्ष में एक नई कहानी लिखने के बाद समाजवादी पार्टी पहले से ही हाशिये पर नजर आ रही थी, अब अंदरुनी विवादों के चलते आशंका इस बात की अधिक है कि कहीं पार्टी इतिहास ही ना बन जाए?
अखिलेश आधे से भी बेदखल
मुलायम ने ये भी बताया कि उनकी बहन और भाई शिवपाल ने ही अखिलेश को पाला-पोषा है – और खुद उन्होंने अखिलेश की पढ़ाई पर काफी ध्यान दिया। साथ ही, मुलायम ने कहा, ‘मेरे नाम पर उन्होंने वोट मांगा था। मैंने ही उन्हें सीएम बनाया। अब उन्हें फ्री कर दिया है।’ मुलायम का ये कहना कि ‘अब उन्हें फ्री कर दिया है’, आखिर क्या जता रहा है? क्या मुलायम अब उन्हें ‘आधा’ मुख्यमंत्री वाली हिस्सेदारी से भी बेदखल कर दिये हैं? क्योंकि विपक्षी नेता तो यही कहा करते थे कि यूपी में साढ़े चार सीएम हैं – और उनमें अखिलेश का हिस्सा सिर्फ आधा बनता है।
मुलायम ही तो नहीं बख्श रहे माया को मैदान
तो यूपी में अब मुख्यमंत्री पद का दावेदार एक ही चेहरा बचा लग रहा है – मायावती का। इंडिया टुडे के सर्वे में भी लोगों ने मायावती को ही सबसे पसंदीदा सीएम कैंडिडेट बताया है। मायावती को ये खुला मैदान किसी और ने नहीं बल्कि उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन खुद मुलायम ने ही बख्श दिया है। बीजेपी ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है और शीला दीक्षित को सर्वे में सिर्फ 1 फीसदी लोग मुख्यमंत्री लायक मानते हैं।
असल में अखिलेश के पर कुतरने की शुरुआत मुलायम सिंह यादव ने उसी समय कर दी थी, जब बिना अखिलेश को विश्वास में लिए भाई शिवपाल यादव को समाजवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। पद संभालते ही चाचा भी अखिलेश के कुछ समर्थकों को पद से हटा कर अखिलेश की पार्टी में पैठ कम करते ही दिखे। शिवपाल ने अखिलेश के लाख विरोध के बावजूद भी कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय करा पार्टी के अंदर अपनी साख और अखिलेश को उनकी जगह दिखा दी। अखिलेश को बाप-चाचा के दबाव में आकर प्रजापति जैसे नेता को फिर से मंत्री बनाना पड़ा जिसे वह पहले ही निकाल चुके थे। अब मुलायम ने यह कह कर अखिलेश का चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनना भी तय नहीं है, पार्टी के अंदर और बाहर उनके उनके भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। अब आखिर अखिलेश यादव की पार्टी के अंदर हैसियत होगी तो क्या होगी?
अगर अखिलेश को न तो टिकट तय करने का अधिकार है, ना ही पार्टी के अंदर अखिलेश अपने समर्थकों का बचाव कर सकते हैं, अपने मंत्रिमंडल के मंत्रियों के लिए भी अखिलेश को दूसरे की ही सलाह पर निर्भर रहना पड़ रहा है। और यहां तक कि अगर चुनाव जीतने के बाद भी अखिलेश का अगर मुख्यमंत्री बनना तय नहीं है, तो आखिर वे किस भूमिका में उत्तर प्रदेश के चुनावों में उतरेंगे? अखिलेश के लिए दुख कि बात यह भी होगी कि पिछले दो वर्षों में जिस तरह उन्होंने पार्टी और सरकार कि छवि बदलने के लिए अच्छे काम किए, उनका उपयोग ना तो पार्टी कर रही है, ना ही इसके बड़े नेता। बजाय इसके चुनाव जीतने के लिए उन्हीं तिकड़म और प्रपंचों का उपयोग किया जाएगा जिससे भागने के अखिलेश ने कई प्रयास किए।
नाम को लेकर अखिलेश का दर्द
एक सुबह अखिलेश यादव का बड़ा ही इमोशनल बयान आया – ‘बचपन में मुझे अपना नाम भी खुद ही रखना पड़ा।’ दोपहर होते-होते मुलायम सिंह यादव ने जता दिया कि ये कोई बड़ी बात नहीं है – ‘परिवार में और भी लोग हैं जिन्होंने अपना नाम खुद ही रखा है।’ लगे हाथ मुलायम ने एक जोरदार झटका भी दिया – ‘अखिलेश यादव ही समाजवादी पार्टी के सीएम कैंडिडेट होंगे ये जरूरी नहीं है।’ चाहे वो अखिलेश यादव हों या शिवपाल यादव या फिर अमर सिंह, अब तक सभी यही कहते रहे कि जो भी ‘नेताजी कहें वही सही’। अब मुलायम सिंह ने भी सियासत के अहं ब्रह्मास्मि अंदाज में बताया कि समाजवादी पार्टी में जो भी हैं वहीं हैं। बाकी न तो कोई है न किसी को मलाल रहे। हां, शिवपाल को इस दायरे से उन्होंने बाहर रखा। मुलायम बोले, ‘कभी मेरे बिना सरकार नहीं बन सकती है। मैं छोटी पार्टी बनाकर इस मुकाम पर पहुंचा हूं। मेरे परिवार में किसी तरह का कोई विवाद नहीं है। शिवपाल पार्टी के इंचार्ज और सब कुछ हैं। जनता हमारे परिवार से प्यार करती है।
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